ब्रिटेन और अमेरिका उन चंद देशों में से हैं जो स्वच्छ पर्यावरण को मानवाधिकार बनाने की राह में रोड़ा अटका रहे हैं। हालांकि ज्यादातर देश इस प्रस्ताव के समर्थन में हैं। इस हफ्ते संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव लाया गया है जिसमें स्वस्थ पर्यावरण को मानवाधिकार बनाने का प्रावधान होगा। हालांकि ऐसी खबरें हैं कि कुछ देश इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं जिनमें ब्रिटेन और अमेरिका भी हैं।
जेनेवा स्थित मानवाधिकार परिषद इसी हफ्ते इस प्रस्ताव को अपना सकती है। हालांकि हो सकता है विरोध करने वाले देश वोटिंग की मांग करें लेकिन कोस्टा रिका, मालदीव्स और स्विट्जरलैंड समेत तमाम देश इस प्रस्ताव के समर्थन में हैं।
पर्यावरणविद कहते हैं कि यदि यह प्रस्ताव पास हो जाता है तो सभी देशों पर दबाव बढ़ेगा कि वे सौ से ज्यादा उन देशों के साथ आएं जिन्होंने पहले ही स्वच्छ आबो हवा को एक कानूनी दर्जा दे दिया है। हालांकि इस प्रस्ताव को मानना या ना मानना सरकारों की मर्जी पर निर्भर होगा लेकिन कानूनविदों के मुताबिक इससे पर्यावरण बचाने के पक्ष में अभियान को बड़ी मदद मिलेगी।
कमजोरों के लिए जरूरी
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनियाभर हर साल एक करोड़ 37 लाख से ज्यादा लोग पर्यावरण की समस्याओं के चलते जान गवां रहे हैं। यानी हर साल मरने वाले कुल लोगों में से करीब एक चौथाई खराब होते पर्यावरण की भेंट चढ़ रहे हैं। एक थिंक टैंक यूनिवर्सल राइट्स ग्रूप के मार्क लीमन कहते हैं कि हम देख चुके हैं कि यह अधिकार लोगों को सशक्त करता है, खासकर उन लोगों को जो पर्यावरणीय खतरों या जलवायु परिवर्तन की सबसे ज्यादा मार झेल रहे हैं। शायद इसीलिए अमेरिका, रूस या यूके जैसे देश इसे पसंद नहीं कर रहे हैं।
अगले महीने ग्लासगो में यूएन की क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस (COP26) होनी है जिसके लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन जिम्मेदार अधिकारी नियुक्त हैं। लेकिन उन्हीं का देश प्रस्ताव का विरोध कर रहा है जिसके चलते ब्रिटेन की खासी आलोचना हो रही है।
सेंटर फॉर इंटरनेशनल इनवायर्नमेंट लॉ में अभियान प्रबंधक सेबास्टीन डाइक कहते हैं कि कूटनीति प्रतिबद्धताओं में पर्यावरण को लेकर नेतृत्व झलकना चाहिए। सम्मेलन कराने से आगे भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। यूके को उन अधिकतर देशों के साथ आना चाहिए जो इस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं।
ब्रिटेन में ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था की निदेशक यास्मीन अहमद उम्मीद करती हैं कि ब्रिटेन को बात समझ में आएगी क्योंकि उनके शब्दों में कि इस प्रस्ताव को उन ज्यादातर देशों को समर्थन है जो पर्यावरण परिवर्तन के कारण ज्यादा खतरे में हैं। ये वही देश हैं जिनकी मदद का वादा बोरिस जॉनसन ने किया है।
ब्राजील और रूस भी अड़े
इस पर अमेरिका ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। हालांकि सूत्र बताते हैं कि चर्चा के दौरान अमेरिकी प्रतिनिधियों ने कानूनन दिक्कतें जाहिर कीं और यह भी कहा कि एक नया अधिकार बना देने से पारंपरिक नागरिक और राजनीतिक अधिकार कमजोर हो सकते हैं।
फिलवक्त अमेरिका मानवाधिकार परिषद का सदस्य नहीं है लेकिन पर्यवेक्षक के तौर पर बहस में शामिल हो सकता है और सदस्यता की कोशिश भी कर रहा है। सूत्र बताते हैं कि ब्रिटेन और अमेरिका के अलावा रूस और ब्राजील भी इस प्रस्ताव का समर्थन नहीं कर रहे हैं और इसमें संशोधन चाहते हैं।
अधिकार मिलने से क्या होगा?
यह प्रस्ताव 1990 के दशक में पहली बार सोचा गया था लेकिन अब तक अधर में लटका हुआ है। मानवाधिकार और पर्यावरण पर यूएन के विशेष दूत डेविड बोएड कहते हैं कि पहले ही बहुत देर हो चुकी है। ऐसे प्रस्ताव पास करने का असर दूरगामी होता है। 2010 में जब यूएन ने पानी और साफ-सफाई को मानवाधिकार बनाने का प्रस्ताव पास किया तो ट्यूनिशिया जैसे देशों ने अपने यहां कानून बनाकर उसे मान्यता दी। इससे पहले 1948 की ऐतिहासिक मानवाधिकार घोषणा को बाद में एक अंतरराष्ट्रीय समझौते के जरिया कानूनी दर्जा मिला।
वीके/एए (रॉयटर्स)