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Last Modified: मंगलवार, 2 अप्रैल 2019 (11:02 IST)

कांग्रेस के इस प्लान का हिस्सा है राहुल का वायनाड से चुनाव लड़ना

कांग्रेस के इस प्लान का हिस्सा है राहुल का वायनाड से चुनाव लड़ना - Rahul Gandhi wayanad lok sabha seat
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ रहे हैं। यह अमेठी से हार के डर की जगह कांग्रेस के बड़े प्लान का हिस्सा लगता है। दो सीटें छोड़कर वायनाड चुनने की वजह भी यही है। यहां 23 अप्रैल को मतदान होगा।
 
 
कांग्रेस ने ऐलान किया है कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी परंपरागत सीट अमेठी के अलावा केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ेंगे। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि राहुल को अमेठी सीट से हार का डर है इसलिए वे दो जगह से चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन वायनाड से राहुल का चुनाव लड़ना कांग्रेस की बड़ी रणनीति का हिस्सा लगता है।
 
 
वायनाड को चुनने की वजह
साल 2018 से ही यह चर्चा शुरू हो गई थी कि राहुल दो सीटों से चुनाव लड़ेंगे और इनमें एक सीट दक्षिण भारत से होगी। दक्षिण भारत में ऐसी सीटों की तलाश शुरू की गई जो राहुल के लिए सुरक्षित हो और इसका प्रभाव भी ज्यादा हो। ऐसे में तीन सीटों को चुना गया था। कर्नाटक की बेंगलुरू ग्रामीण, तमिलनाडु की कन्याकुमारी और केरल की वायनाड।
 
 
बेंगलुरू ग्रामीण कांग्रेस के लिए सुरक्षित सीट है। 2009 में कर्नाटक के वर्तमान सीएम कुमारस्वामी यहां से जीते थे। 2013 के उपचुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के डीके सुरेश यहां से जीते। लेकिन इस सीट की लोकेशन की वजह से इसका असर दूसरी सीटों पर नहीं होता क्योंकि यह कर्नाटक के एक ऐसे हिस्से में मौजूद है जिसके आसपास कोई और राज्य नहीं है।
 
 
कन्याकुमारी सीट 2014 में भाजपा के कब्जे में गई थी। लोकेशन में यह सुदूर दक्षिण में है। ऐसे में इसका असर भी आसपास ज्यादा नहीं होता। साथ ही तमिलनाडु में कांग्रेस की स्थिति मजबूत नहीं है। ऐसे में कांग्रेस को सहयोगी दल डीएमके पर निर्भर रहना पड़ता। इसलिए तीसरे विकल्प पर गौर किया गया।
 
 
वायनाड लोकसभा सीट केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक के बॉर्डर पर है। ऐसे में कांग्रेस को उम्मीद है कि इसका असर तीनों राज्यों पर पड़ेगा। कांग्रेस ने 2014 की भाजपा की रणनीति को अपनाया है। नरेंद्र मोदी ने वडोदरा की सेफ सीट और वाराणसी से चुनाव लड़ा। मोदी के वाराणसी से चुनाव लड़ने का असर इतना हुआ की पूर्वांचल में दूसरी पार्टियां साफ हो गईं। फूलपुर जैसी मुश्किल सीट पर भी भाजपा बड़े अंतर से जीती थी। यही सोच कांग्रेस लेकर चल रही है।
 
 
वायनाड का 'वोटबैंक'
वायनाड सीट 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई थी। इसमें सात विधानसभा सीटें आती हैं। ये सात सीटें चार अलग-अलग जिलों में हैं। ऐसे में कांग्रेस एक सीट से ही दूसरी सीटों को साधने की कोशिश में है। कांग्रेस के एमआई शानवास 2009 और 2014 में यहां से सांसद रहे। 2018 में उनका निधन हो गया। वायनाड सीट के अंदर हिंदुओं की आबादी करीब 50%, मुस्लिम 29% और ईसाई करीब 21% हैं। हिंदुओं में अधिकांश जनजातीय लोग हैं। अधिकांश का पेशा किसानी है।
 
 
पर्यटकों में लोकप्रिय वायनाड में काली मिर्च की खेती सबसे ज्यादा होती है। पिछले साल आई बाढ़ के बाद यहां पर सात किसानों ने आत्महत्या की है। ऐसे में राहुल किसानों के सहारे राज्य और केंद्र दोनों सरकारों पर हमलावर हो सकेंगे। केरल में धर्मों के बीच सांप्रदायिक आधार पर वोट का बंटवारा उत्तर भारत जैसा नहीं है। ऐसे में कांग्रेस इस सीट को लेकर आश्वस्त है।
 
 
कांग्रेस का मिशन साउथ
कांग्रेस का मिशन साउथ राहुल के वायनाड जाने की सबसे बड़ी वजह है। उत्तर भारत में बीजेपी और क्षेत्रीय दल मजबूती से चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस के पास यहां हासिल करने के लिए ज्यादा कुछ बचा नहीं है। उत्तर-पूर्व में बीजेपी ने भारी विरोध के बावजूद गठबंधन कर स्थिति मजबूत की है। पश्चिम बंगाल में ममता अभी भी सब पर भारी हैं। यूपी में कांग्रेस अकेले लड़ने की वजह से पांच से दस सीट से ज्यादा आगे नहीं जा सकती। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में प्रदर्शन पहले की तुलना में सुधरेगा लेकिन कितना सुधरेगा यह अभी कहा नहीं जा सकता।
 
 
ऐसे में कांग्रेस को अपने पुराने किले यानी दक्षिण भारत का रुख करना पड़ रहा है। दक्षिण भारत के राज्यों में 130 सीटें पड़ती हैं। केरल, तमिलनाडू और कर्नाटक में 87 सीटें हैं। इन तीनों जगह कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़ रही है। केरल में कांग्रेस मजबूत स्थिति में है। तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक को काफी नुकसान हुआ है। ऐसे में कांग्रेस-डीएमके की राज्य की 39 सीटों पर नजर है। कर्नाटक की 28 सीटों पर कांग्रेस-जेडीएस मिलकर लड़ रहे हैं। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कांग्रेस अकेले ही लड़ रही है। ऐसे में कांग्रेस उत्तर भारत के नुकसान की दक्षिण भारत से भरपाई करना चाह रही है।
 
 
कांग्रेस की नेतृत्व करने की कोशिश
चुनाव पूर्व अनुमान था कि कांग्रेस सब जगह महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ेगी लेकिन छोटे दलों द्वारा मांगी गई सीटों से कम सीटें दिए जाने की वजह से उसने अकेले लड़ने का फैसला किया है। कांग्रेस और लेफ्ट 2016 में बंगाल में एक साथ और केरल में एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े थे। इस बार दोनों जगह खिलाफ हैं। ऐसे में कांग्रेस कोई ऐसा संदेश नहीं देना चाहती कि वह सत्ता की दौड़ से बाहर है या तीसरे मोर्चे को बाहर से समर्थन दे रही है। तमिलनाडु के अलावा दोनों राज्यों के गठबंधन में वह सीनियर पार्टनर है। आंध्र और तेलंगाना में अकेले ही मैदान में है।
 
 
कांग्रेस ने 2009 में अकेले आंध्र प्रदेश से 34 सीटें जीती थीं। लेकिन अब आंध्र कांग्रेस का किला नहीं रहा है। इसकी भरपाई कांग्रेस केरल, कर्नाटक और तमिलनाडू से करना चाहती है। 1996 में देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के बाद पिछले 22 साल में कोई भी दक्षिण भारतीय प्रतिनिधि केंद्र की राजनीति में सर्वोच्च पर नहीं पहुंचा। इस बार कांग्रेस राहुल के सहारे दक्षिण भारतीयों को ये सपना दिखा रही है।
 
 
प्रियंका के लिए भी हो सकती है अमेठी
अमेठी में राहुल के मुकाबले फिर से स्मृति ईरानी हैं लेकिन कांग्रेस राहुल की जीत को लेकर आश्वस्त है। जानकारों का कहना है कि कड़ा मुकाबला हो सकता है लेकिन अमेठी जैसे गढ़ को कांग्रेस बचा ले जाएगी। दोनों सीटें जीतने पर राहुल अमेठी की सीट प्रियंका के लिए खाली कर सकते हैं। फिलहाल कांग्रेस में अंदरखाने चर्चा है कि प्रियंका गांधी वाड्रा वाराणसी से चुनाव लड़ सकती हैं। अगर ऐसा होता है तो मुकाबला दिलचस्प होगा।
 
 
राहुल का दो सीटों से लड़ना इतिहास की पुनरावृत्ति ही है। 1980 में इंदिरा गांधी रायबरेली और वर्तमान तेंलगाना की मेडक सीट से चुनाव लड़ी थीं। 1978 में कर्नाटक के चिगमंगलूर से उपचुनाव भी जीती थीं। इसके बाद 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने कर्नाटक की सभी 27 सीटों पर जीत दर्ज की थी। सोनिया गांधी 1999 में अपने पहले चुनाव में अमेठी के साथ कर्नाटक की वेल्लारी सीट से भी लड़ी थीं। वो दोनों जगह से जीतीं। वेल्लारी से लड़ने का असर यह हुआ कि कांग्रेस की कर्नाटक में सीटें बढ़कर 5 से 18 हो गईं थी। अब राहुल इसी राह पर आगे बढ़ रहे हैं।
 
 
रिपोर्ट ऋषभ कुमार शर्मा
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