भारत में फॉरेस्ट कवर के रूप में चिन्हित करीब 30 प्रतिशत जमीन पर जंगल है ही नहीं। अब सवाल ये है कि अगर वन ही नहीं है तो उसे वन क्षेत्र के दायरे में क्यों रखा गया है।
दिसंबर 2019 में भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा जारी इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट, आईएसएफआर 2019 के मुताबिक सरकारी रिकॉर्ड में वन क्षेत्र के 7,67,419 वर्ग किलोमीटर में से 2,26,542 वर्ग किलोमीटर में फॉरेस्ट कवर नहीं है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि करीब 30 प्रतिशत जंगलविहीन इलाके पर सड़क निर्माण, खनन और खेती की जा रही है। ये अजीबोगरीब स्थिति है कि यह क्षेत्र फाइल में तो जंगल के रूप में दर्ज है लेकिन वहां असल में जंगल नहीं है।
वन नियमों के मुताबिक उस भूभाग को फॉरेस्ट कवर कहा जाता है जिसका दायरा एक हैक्टेयर का हो और जिसमें वृक्ष वितान (कैनपी) की सघनता 10 प्रतिशत से ज्यादा है। लेकिन वन विभाग के दस्तावेजों में जो जमीन जंगल की है वो जंगल क्षेत्र में मान ली जाती है लिहाजा मापन में उस इलाके को भी वनक्षेत्र में शामिल कर लिया जाता है जहां वस्तुत: सघन वृक्ष उपस्थिति है भी नहीं।
वन विभाग ऐसे क्षेत्र में निर्माण कार्य की अनुमति देते हुए ये शर्त भी जोड़ देता है कि परिवर्तित जमीन का वैधानिक दर्जा यथावत यानी जंगल का ही रहेगा। जंगल रहे न रहे जमीन वन विभाग के अधिकार में ही रहती है। एक मीडिया रिपोर्ट में जानकारों के हवाले से बताया गया है कि खदान कार्य हो जाए तो जमीन वापस वन विभाग को सौंप दी जाती है और अगर बांध बनता है तो उसके जलाशय पर नियंत्रण वन विभाग का रहता है।
जंगल की कानूनी वैधता, उसकी तकनीकी पहचान और वन नियमावलियां अपनी जगह हैं लेकिन वन संरक्षण और आदिवासी हितों से जुड़े संगठनों और विशेषज्ञों का कहना है कि परिवर्तित भूमि को फॉरेस्ट कवर के रूप में डालकर निर्वनीकरण या वन कटाई की गतिविधियों का हिसाब कैसे रखा जा सकता है। उनका आरोप है कि निर्माण कार्यों और जंगल क्षरण से होने वाले नुकसान की अनदेखी कर परिवर्तित भूमि को भी वन में आंकना गलत है।
विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि निर्वनीकरण उतनी बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि उस स्थिति में वृक्षारोपण से भरपाई की कोशिशें कर ली जाती हैं लेकिन वनों का ह्रास या उनका अवमूल्यन ज्यादा चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि जंगल की न सिर्फ पहचान बदल दी जाती है बल्कि उसको फिर से उस रूप में लौटा पाना कठिन हो जाता है, क्योंकि वनीकरण के अभियान अक्सर एकांगी और पारिस्थितिकीय तंत्र के प्रति असवंदेनशील होते हैं।
दोबारा पेड़ लगाने के नाम पर जो होता है वो मोनोकल्चर पौधारोपण ही होता है। जंगल की जैव विविधता छिन्न-भिन्न हो जाती है और उसे पुराने रूप में लौटाने की न सदिच्छा रहती है न कार्ययोजना।
उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में बड़े पैमाने पर लगाए गए चीड़ के पेड़ इस तरह के वृक्षारोपण का उदाहरण है। कई राज्यों में यूक्लेप्टिस के पेड़ पारिस्थितकीय संतुलन को ध्वस्त कर चुके हैं। निर्माण कार्यों की वजह से जंगलों के मूल निवासियों और आदिवासियों के विस्थापन ने भी जंगल के जीवन में गतिरोध पैदा कर दिया है।
जंगल में रिहाइश से जुड़े उनके मूल अधिकारों पर नियम या विकास के किसी न किसी बहाने के रूप में लगातार आरी चल ही रही है। विकास का समावेशी मॉडल सबसे पहले अगर कहीं बर्बाद होता दिखता है तो सिकुड़ते जंगलों और उनके आदिवासियों की क्षीण होती सामुदायिकता के रूप में देखा जा सकता है।
हर दो साल पर जारी होने वाली वन सर्वेक्षण की इस रिपोर्ट के मुताबिक 2017 के मुकाबले आज भारत में वन और वृक्ष कवर में 5 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से ज्यादा की वृद्धि हुई है। कुल क्षेत्र 8,07,276 वर्ग किलोमीटर आंका गया है। इसमें से 95,027 वर्ग किलोमीटर वृक्ष कवर है। लेकिन पूर्वोत्तर भारत में जंगल क्षेत्र सिमट रहे हैं। झूम खेती (शिफ्टिंग कल्टीवेशन) को इसकी मुख्य वजह बताया गया है।
सरकार यूं तो ये कहकर अपनी पीठ थपथपा सकती है कि भारत का करीब 25 प्रतिशत भूभाग अब वन और वृक्ष से आच्छादित है लेकिन इसमे कुछ बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए। एक तो ये कि पेरिस जलवायु समझौते के तहत 2030 तक उसके अपने लक्ष्य 33 प्रतिशत से वो अभी काफी दूर है और दूसरी बात उसी विसंगति से जुडी है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है।
एक बात ये भी है कि भारतीय वन सर्वेक्षण का डाटा ये तो दिखाता है कि देश का फॉरेस्ट कवर पिछले 17 वर्षों में 5 प्रतिशत बढ़ा है लेकिन ये भी देखना चाहिए कि फॉरेस्ट एरिया घटा है। नासा के सैटेलाइट निष्कर्षों से भी इस बात की तस्दीक होती है कि भारत में हरित कवर में बढ़ोत्तरी की एक बड़ी वजह गहन खेती (इन्टेन्सिव एग्रीकल्चर) भी है।
एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 14 वर्षों में सघन फसलीकरण की दर 131 प्रतिशत से बढ़कर 142 प्रतिशत हो चुकी है। बड़ी आबादी को भोजन उपलब्ध कराने के लिए सालाना दर बढ़ती जा रही है। देश के कुल 43 प्रतिशत भूभाग पर खेती की जाती है। खेती और वनीकरण में अब एक नये संतुलन और समन्वय की जरूरत भी है।
बेतहाशा खेती से भूजल के दोहन की विकरालता को भी देखना होगा और वनों के सिकुड़ते जाने और जंगलों की पहचान मिटते जाने से से कुल पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय क्षति का भी आकनल करना होगा। ये नुकसान और एकतरफा दबाव सिर्फ पर्यावरण और जलवायु के लिए ही घातक नहीं, इसके सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ भी कम घातक न होंगे।
-रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी