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Written By DW
Last Modified: रविवार, 20 नवंबर 2022 (08:21 IST)

कतर वर्ल्ड कपः जिन्होंने बनाया वे किसी कतार में नहीं

कतर वर्ल्ड कपः जिन्होंने बनाया वे किसी कतार में नहीं - dreams of wealth turn to dust for qatar migrant workers
कतर में फुटबॉल विश्व कप जिन स्टेडियमों में खेला जाएगा वहां हजारों मजदूरों का खून-पसीना बहा है। बहुत से मजदूर खाली हाथ घर लौट गए और अपनी जिंदगियों से जूझ रहे हैं।
 
दोहाका शानदार खलीफा इंटरनेशनल स्टेडियम बनाने में औपन मीर ने भी खून-पसीना बहाया है। बांग्लादेश के रहने वाले औपन मीर राज मिस्त्री हैं और उन्होंने खलीफा स्टेडियम के निर्माण में काम किया है। इस स्टेडियम में वर्ल्ड कप के आठ मैच खेले जाएंगे, जिन्हें हजारों दर्शक टिकट लेकर देखेंगे और आयोजकों को करोड़ों का मुनाफा होगा। लेकिन मीर की इतनी हैसियत नहीं है कि वह किसी मैच का टिकट खरीद सकें। वह चार साल कतर में खपाने के बाद खाली हाथ घर लौट चुके हैं।
 
मीर कहते हैं, "क्या सुंदर स्टेडियम बना है। अविश्वसनीय रूप से खूबसूरत है। लेकिन दुख की बात है कि इतने बड़े स्टेडियम के निर्माण का हिस्सा होने के बावजूद हमें पैसा नहीं मिला। हमारे फोरमैन ने हमारे नाम से सारा पैसा बैंक से निकाला और फरार हो गया।”
 
पश्चिमी बांग्लादेश में श्रीपुर के रहने वाले औपन मीर 2016 में इस ख्वाब के साथ कतर पहुंचे थे कि धन कमाएंगे और अपनी व अपने परिवार की जिंदगी बदल देंगे। उन्होंने कर्ज लेकर कतर का टिकट खरीदा था। वह एक भारतीय निर्माण कंपनी के साथ काम कर रहे थे। लेकिन उनके पास वैध वर्क परमिट नहीं था इसलिए 2020 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और स्वदेश भेज दिया गया।
 
स्वदेश लौटने से पहले उन्होंने चिलचिलाती गर्मी में भूखे पेट रहकर कई-कई दिन काम किया। खुले में समुद्र किनारे सोये और अपने पसीने में खून बहाकर स्टेडियम की मिट्टी में मिलाया। 33 साल के मीर बताते हैं, "कतर में अपनी किस्मत बदलने के लिए मैंने लगभग सात लाख टका (करीब 5।5 लाख भारतीय रुपये) खर्च किए। मैं 25 रियाल (करीब सात हजार टका या पांच हजार भारतीय रुपये) जेब में लेकर लौटा हूं। कतर ने मुझे बस इतना ही दिया है।"
 
ऐसी हजारों कहानियां
एक कहानी भारत के रहने वाले श्रवण कल्लाडी और उनके पिता रमेश की है। दोनों पिता-पुत्रों ने भी उसी भारतीय कंपनी के लिए काम किया। उन्होंने स्टेडियम की ओर जाने वालीं सड़कें बनाईं। लेकिन रमेश कल्लाडी घर नहीं लौट पाए। वहीं हृद्यघात से उनकी मौत हो गई।
 
श्रवण कल्लाडी बताते हैं, "जिस दिन मेरे पिता का निधन हुआ, काम करते हुए ही उनके सीने में दर्द होने लगा था। हम उन्हें जल्दी से अस्पताल ले गए। मैंने डॉक्टरों से बार-बार कहा कि इन्हें बचा लो। फिर कोशिश करो।”
 
कल्लाडी बताते हैं कि कतर में काम के हालात बिल्कुल अच्छे नहीं थे। वह घंटों तक ओवरटाइम करते थे जिसका कोई पैसा नहीं मिलता था। उनके पिता ड्राइवर की नौकरी पर थे और सुबह तीन बजे से रात को 11 बजे तक गाड़ी चलाते थे।
 
तेलंगाना के रहने वाले कल्लाडी कहते हैं, "कैंप के उस कमरे में हम 6-8 लोग रहते थे जबकि वहां चार आदमियों के ठीक से बैठने की जगह भी नहीं थी। हमें अत्यधिक गर्मी में काम करना पड़ता था और खाना भी अच्छा नहीं था।”
 
पिता का शव भारत ले जाने के बाद कल्लाडी कभी कतर नहीं गए। उन्हें मुआवजे के तौर पर सिर्फ एक महीने की तन्ख्वाह मिली। अब अधूरा बना घर उन्हें रह-रहकर अपने अधूरे सपनों और गंवाए सालों की याद दिलाता है। बीते छह साल से वह उन लोगों के शवों का मध्य-पूर्व के देशों से भारत लाने का काम कर रहे हैं जो काम करते हुए मारे जाते हैं। कल्लाडी बताते हैं, "जब तक हम काम कर रहे हैं, तभी तक हम कंपनी के होते हैं। मरने के बाद नहीं। हम उन पर भरोसा करके अपना घर-गांव छोड़कर गए पर उन्होंने हमें बेसहारा छोड़ दिया।”
 
देर आयद, कम आयद
कतर को जब विश्व कप की मेजबानी मिली तो वहां निर्माण कार्य शुरू हुआ। तब वहां जाकर ‘खूब सारा पैसा' कमाने की चाह में लाखों लोग पहुंचे। कतर की 28 लाख आबादी का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा तो आप्रवासी ही हैं। इनमें से ज्यादातर भारतीय उप-महाद्वीप और फिलीपींस से आते हैं। इसके अलावा अफ्रीकी देशों जैसे केन्या और युगांडा के भी काफी लोग हैं।
 
काम करने की कठोर परिस्थितियों, कम या बिना वेतन के काम और बड़ी संख्या में मजदूरों की मौत को लेकर कतर लगातार आलोचना झेलता रहा है। वैसे वहां की सरकार ने ऐसी कंपनियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की योजनाएं बनाई हैं जो मजदूरों के अधिकारों का उल्लंघन करती हैं। मजदूरों को लाखों का मुआवजा भी दिया गया है। लेकिन मानवाधिकार समूह कहते हैं कि ये कदम बहुत थोड़े हैं और बहुत देर से उठाए गए।
 
मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशल की 2021 की एक रिपोर्ट में कहती है कि कतर में काम करने वाले लोगों का शोषण व्यवस्थागत रूप से होता है क्योंकि वहां काम करने जाने वाले लोग अपने मालिकों के रहमोकरम पर होते हैं। लोग अपने मालिकों की इजाजत के बिना नौकरी नहीं बदल सकते और इसकी प्रक्रिया भी बेहद दुरूह है।
 
फुटबॉल की विश्व संस्था फीफा की भी इस बात के लिए आलोचना हुई है कि उसने कतर में मजदूरों के अधिकारों के लिए समुचित दबाव नहीं बनाया। मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट कहती है कि फीफा ना सिर्फ स्टेडियम बनाने वाले कर्मियों के लिए जिम्मेदार है बल्कि देश की कुल आप्रवासी आबादी का एक छोटा हिस्सा भी उसके आयोजन के लिए काम कर रहा था, जिस पर अनुमानतः कुल 220 अरब डॉलर का खर्च आया।
 
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा, "स्वयं मजदूरों और मानवाधिकार संगठनों द्वारा बार-बार चेतावनियां दिए जाने के बावजूद फीफा उनके अधिकारों के लिए सख्त शर्तें लागू करने में नाकाम रहा और इस तरह विस्तृत शोषण में हिस्सेदार बना।”
 
रिपोर्टः विवेक कुमार (एएफपी)
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