Jagannath Puri Rath Yatra 2024: भारत के ओडिशा राज्य के पुरी नगर में प्रतिवर्ष आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। 7 जलाई को भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का आयोजन होगा। इसमें शामिल होने के लिए इस बार देश विदेश से लाखों भक्त आएंगे। आओ जानते हैं यात्रा से संबंधित परंपरा और रस्मों की संपूर्ण जानकारी।
1. लकड़ी चयन: यात्रा के लिए तीन रथों के निर्माण के लिए काष्ठ का चयन बसंत पंचमी पर होता है और निर्माण कार्य वैशाख माह में अक्षया तृतीया पर प्रारंभ होता है, यानी दो माह पूर्व। रथों का निर्माण नीम की पवित्र अखंडित लकड़ी से होता है, जिसे दारु कहते हैं। रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील, कांटों और धातु का उपयोग नहीं करते हैं।
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2. तीन रथों के नाम: रथयात्रा में तीन रथ होती हैं। बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' या पद्म रथ कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नंदीघोष' या 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है। रथयात्रा में सबसे आगे बलरामजी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है।
3. चंदन यात्रा : वैशाख और ज्येष्ठ में में चंदन यात्रा निकालते हैं। यह यात्रा भगावन को गर्मी से बचाने के लिए निकालते हैं। भगवान जगन्नाथ की चंदन यात्रा उत्सव दो हिस्सों में मनाई जाती है। पहला बहार दूसरा भीतर। बहार चंदन उत्सव अक्षय तृतीया से शुरू होकर 21 दिनों तक चलता है। इस दौरान भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के लिए रथों का निर्माण किया जाता है। फिर अगले 21 दिनों तक भीतर चंदन यात्रा उत्सव का आयोजन किया जाता है। भीतर चंदन यात्रा में कई अनुष्ठान किए जाते हैं। इस दौरान अमावस्या, पूर्णिमा की रात, षष्ठी और शुक्ल पक्ष की एकादशी को चंचल सवारी होती है।
4. ओसर घर : रथयात्रा के 15 दिन पूर्व भगवान जगन्नाथ को 108 कलशों से शाही स्नान कराया जाता है जिसके चलते वे बीमार पड़ जाते हैं और तब उन्हें 15 दिनों के लिए एक अलग कक्ष में सुलाया जाता है, जिसे ओसर घर कहते हैं। इस 15 दिनों की अवधि में महाप्रभु को मंदिर के प्रमुख सेवकों और वैद्यों के अलावा कोई और नहीं देख सकता। इस दौरान मंदिर में महाप्रभु के प्रतिनिधि अलारनाथ जी की प्रतिमा स्थापित की जाती हैं तथा उनकी पूजा अर्चना की जाती है। प्रभु के बीमार पड़ने पीछे की अलग कहानी है जो भक्त माधवदास से जुड़ी है।
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5. स्वस्थ होकर निकलते हैं प्रभु यात्रा पर : 15 दिन बाद भगवान स्वस्थ होकर कक्ष से बाहर निकलते हैं और भक्तों को दर्शन देते हैं। जिसे नव यौवन नैत्र उत्सव भी कहते हैं। इसके बाद द्वितीया के दिन महाप्रभु श्री कृष्ण और अपने बड़े भाई बलराम जी तथा बहन सुभद्रा जी के साथ बाहर राजमार्ग पर आते हैं और रथ पर विराजमान होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं।
6. पोहंडी बिजे : रथयात्रा के दिन प्रात:काल सर्वप्रथम 'पोहंडी बिजे' होती है। भगवान को रथ पर विराजमान करने की क्रिया 'पोहंडी बिजे' कहलाती है।
7. छेरा पहरा रस्म : पोहंडी बिजे के बाद छेरा पहरा एक रस्म होती है, जो रथयात्रा के पहले दिन निभाई जाती है। जिसमें पुरी के महाराज के द्वारा यात्रा मार्ग और रथों को सोने की झाडू से साफ किया जाता है।
8. पहाड़ी रस्म: इसके बाद पहाड़ी एक धार्मिक परंपरा है, जिसमें भक्त बलभद्र, सुभद्रा और भगवान श्रीकृष्ण को गुंडिचा मंदिर तक रथ यात्रा करवाते हैं। आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरम्भ होती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। कहते हैं, जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है, वह महाभाग्यवान माना जाता है।
10. गुंडिचा मंदिर पहुंचती है रथयात्रा : रथयात्रा जगन्नाथ मंदिर से शुरू होकर गुण्डिच्चा मंदिर तक पहुंचती है। गुण्डिच्चा या गुंडिचा राजा इंद्रद्युम्न की पत्नी थी जिसने एक गुफा में बैठकर तब तक तपस्या की थी जब तक की राजा इंद्रद्युम्न ब्रह्मालोक से लौटकर नहीं आ गए थे। उनकी तपस्या के चलते ही वह देवी बन गई और उनके तप के बल से ही राजा नारदमुनि के साथ ब्रह्मलोक की यात्रा करने समय पर लौट आए। यात्रा की शुरुआत सबसे पहले बलभद्र जी के रथ से होती है। उनका रथ तालध्वज के लिए निकलता है. इसके बाद सुभद्रा के पद्म रथ की यात्रा शुरू होती है। सबसे अंत में भक्त भगवान जगन्नाथ जी के रथ 'नंदी घोष' को बड़े-बड़े रस्सों की सहायता से खींचना शुरू करते हैं। गुंडीचा मां के मंदिर तक जाकर यह रथयात्रा पूरी मानी जाती है। जब जगन्नाथ यात्रा गुंडिचा मंदिर में पहुंचती है तब भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र जी को विधिपूर्वक स्नान कराया जाता है और उन्हें पवित्र वस्त्र पहनाए जाते हैं।
11. हेरा पंचमी : यात्रा के पांचवें दिन हेरा पंचमी का महत्व है। इस दिन मां लक्ष्मी भगवान जगन्नाथ को खोजने आती हैं, जो अपना मंदिर छोड़कर यात्रा में निकल गए हैं।
12. आड़प-दर्शन : गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को 'आड़प-दर्शन' कहा जाता है। गुंडीचा मंदिर को 'गुंडीचा बाड़ी' भी कहते हैं। माना जाता है कि मां गुंडीचा भगवान जगन्नाथ की मासी हैं। यहीं पर देवताओं के इंजीनियर माने जाने वाले विश्वकर्मा जी ने भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की प्रतिमा का निर्माण किया था। गुंडिचा भगवान की भक्त थीं। मान्यता है कि भक्ति का सम्मान करते हुए भगवान हर साल उनसे मिलने जाते हैं।
13. बहुड़ा यात्रा : आषाढ़ माह की दशमी को सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। जगन्नाथ पुरी में भक्त भगवान के रथ को खींचते हुए दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन वापस लाया जाता है।
14. रथ में ही रहती है एकादशी तक प्रतिमाएं : नौवें दिन रथयात्रा पुन: भगवान के धाम आ जाती है। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है।