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भारत के ‘सरदार हरी सिंह नालवा’ के नाम से कांपती थी ‘अफगान‍िस्‍तान’ की धरती

भारत के ‘सरदार हरी सिंह नालवा’ के नाम से कांपती थी ‘अफगान‍िस्‍तान’ की धरती - Hari singh navala, afganistan, ranjeet singh
  • जिस अफगान से अमेरिका ने सेना हटा ली और सोवियत संघ कभी काब‍िज नहीं हो सका वहां नालवा के नाम का खौफ था
  • हरि सिंह नालवा का ये खौफ था कि 30 अप्रैल 1837 को अपनी आखिरी लड़ाई में जब वो बीमारी की हालत में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए
  • उनकी मौत को छुपा कर उनके शव को दो दिन तक सिंहासन से लगा के किले के ऊपर रखा गया था। हरि सिंह नालवा को बैठा देख कर अफगानों की आगे बढ़ने की हिम्‍मत नहीं हो सकी।

भारत में योद्धाओं का इतिहास ऐसा रहा है कि आज भी भारत की धरती उनकी वीरताओं के गीत गाती है। वीरता और साहस के इसी इतिहास में एक योद्धा ऐसे रहे हैं, जिनके खौफ से अफगानिस्‍तान की धरती कांपती थी। इस वीर का नाम था सरदार हरी सिंह नालवा।

आज जिस अफगानिस्‍तान से अमेरिका की सेना भाग गई, जहां कभी सोवियत संघ भी काब‍िज नहीं हो सका, उस अफगानिस्‍तान के बच्‍चे भी रोना बंद कर के सो जाते थे। कहा जाता है कि जब अफगानी बच्‍चे अपनी मां को परेशान करते थे और सोते नहीं थे तो वहां की माएं उनसे कहती थी कि ‘चुप हो जा वरना सरदार नालवा आ जाएगा’
अफगानिस्तान को सल्तनतों की कब्रगाह कहा जाता है। ऐसे में इस सिख योद्धा ने अफगानों के नाको चने चबवा दिए थे।

दरअसल, सरदार हरी सिंह नालवा महाराज रणजीत सिंह की फौज के सबसे भरोसेमंद कमांडर थे। वह कश्मीर, हाजरा और पेशावर के गवर्नर भी रहे। उन्होंने कई अफगान योद्धाओं को शिकस्त दी और यहां के कई हिस्सों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया। उन्होंने खैबर दर्रे का इस्तेमाल करते हुए अफगानों को पंजाब में आने के सारे रास्‍तों को बंद कर दिया था। क्‍योंकि 1 हजार एडी से लेकर 19वीं सदी की शुरुआत तक खैबर दर्रा ही एक ऐसा रास्‍ता था जहां से विदेशी हमलावरों की भारत में घुसपैठ हो सकती थी।

उस दौर में अफगानिस्तान एक ऐसा इलाका माना जाता था जिसे कोई हरा नहीं पाता था। लेकिन हरी सिंह नालवा ने अफगानिस्तान के सीमावर्ती हिस्सों और खैबर दर्रे पर कब्जा करके अफगानों के लिए इस रास्ते से भारत में आने की सारी उम्‍मीदों पर पानी फेर दिया।

जब अफगान लगातार पंजाब और दिल्ली आ रहे थे तो महाराजा रणजीत सिंह ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए दो तरह की सेनाएं बनाईं। एक सेना को व्यवस्थित रखने के लिए फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, रशियन और ग्रीक्स योद्धा नियुक्त किए गए थे। वहीं दूसरी सेना हरी सिंह नालवा के अंडर में थी। यह महाराजा रणजीत सिंह की सबसे बड़ी ताकत थी। सरदार हरी सिंह नालवा ने इस सेना के साथ अफगान आदिवासी हाजरा को कई बार मात देकर भगा दिया था। नालवा की बहादुरी की स्‍मृति को जीवित रखने के लिए साल 2013 में भारत सरकार ने उनके ऊपर एक डाक टिकट भी जारी किया था।

हरी सिंह नालवा ही एकमात्र वो योद्धा थे जिन्‍होंने अफगानों को कई बार उनके कई इलाकों से भगाया था। 1807 में महज 16 साल की उम्र में नालवा ने कसूर (अब पाकिस्तान में) के युद्ध में हिस्सा लिया। इस युद्ध में उन्होंने अफगानी शासक कुतुबुद्दीन खान को हराया था। वहीं 1813 में नालवा ने अन्य कमांडरों के साथ मिलकर अटॉक के युद्ध में हिस्सा लिया और आजिम खान व उसके भाई दोस्त मोहम्मद खान को मात दी। यह दोनों काबुल के महमूद शाह की तरफ से यह युद्ध लड़ रहे थे। दुर्रानी पठानों के खिलाफ सिखों की यह पहली बड़ी जीत मानी जाती थी।

1818 में सिख आर्मी ने नालवा के नेतृत्व में पेशावर का युद्ध जीता और नालवा को वहां रुकने के लिए कहा गया था। यहां से उन्हें पंजाब-अफगान सीमा पर निगाह रखने की जिम्मेदारी दी गई थी। 1837 में नालवा ने जमरूद पर कब्जा जमाया, जो कि खैबर पास के रास्ते अफगानिस्तान जाने का रास्ता था। इतिहासकारों के मुताबिक मुल्तान, हजारा, मानेकड़ा, कश्मीर आदि युद्धों में अफगानों की शिकस्त ने सिख साम्राज्य को और विस्तार दिया। इस तरह की जीतों ने अफगानों के मन में नालवा के प्रति दहशत पैदा कर दी थी।

इतिहासकारों का मानना है कि अगर हरी सिंह नालवा ने पेशावर और उत्तरी-पश्चिमी युद्धक्षेत्र जो आज पाकिस्तान का हिस्सा हैं, में युद्ध न जीतकर विद्रोहियों को न भगाया होता तो आज यह अफगानिस्तान का हिस्सा होते और पंजाब-दिल्ली में अफगानों की घुसपैठ कभी नहीं रोकी जा सकती थी। इसका परिणाम यह होता कि अफगानिस्तान आज भारत के लिए नासूर बन जाता। लेकिन सरदार हरी सिंह ने अपनी वीरता के चलते इस तकलीफ को हमेशा के लिए खत्‍म कर दिया।