क्रिसमस स्पेशल कविता : सांता तुम कहां हो
धूप में खुलकर खलिकर खिलखिलाकर
1 दिन का क्रिसमस मनाकर
सोच रही हूं सांता तुम कहां हो
वॉशिंग मशीन में अरमान लगाकर
अलगनी पर टंगे सूखते
कुछ अधलिखे गीत तहाकर
पापड़ बड़ियां सुखाकर
सोच रही हूं, सांता तुम कहां हो
अधनिहारा चांद रखा है अब तक खिड़की पर
अधपढ़ी रखी है नैनों की दो पुस्तकें
स्पर्श के कुछ महकते कैंडल जलाकर
सोच रही हूं, सांता तुम कहां हो
दिसंबर को नहला धुला
थमा दिया है आज का अखबार
और जनवरी बैठा है पैर फैलाए आंगन में
उसी को चाय का कप थमाकर
सोच रही हूं सांता तुम कहां हो
चलने लगी है सितंबर मेरी
घुटने - घुटने आंगन में
और जून मचल रहा है
गोदी में सो जाने को
काम बहुत है इसी से
दोनों को थपककर सुलाकर
सोच रही हूं सांता तुम कहां हो