पिछले दिनों कोलकाता रेप और मर्डर केस के बाद हमेशा की तरह सियासती दांव पेंच और आरोप-प्रत्यारोप का न थमने वाला दौर चल रहा है। और इसी बीच केरल की मलयालम फिल्म इंडस्ट्री (Malayalam film industry harassment) में महिलाओं के साथ यौन शोषण होने का खुलासा हुआ है।
क्या है हेमा समिति की रिपोर्ट में :
पिछले हफ्ते, न्यायमूर्ति हेमा समिति की रिपोर्ट का एक संशोधित संस्करण सार्वजनिक किया गया था, जिसमें मलयालम फिल्म उद्योग में महिला कलाकारों के यौन उत्पीड़न के कई उदाहरण सामने आए थे। महिला कलाकारों के साथ यौन उत्पीड़न और कास्टिंग काउच के मामले में कई दिग्गज सितारों के नाम हैं।
लेकिन ये पहली बार तो नहीं हुआ। इससे पहले होलीवुड और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में भी ऐसे ही मामले सामने आ चुके हैं। भारत में इस मामले ने बहुत तूल पकड़ा था लेकिन आखिरकार क्या हुआ? क्या उसे पुरुषों की महिलाओं को भोग के रूप में देखने की मानसिकता में कोई बदलाव आया? बिल्कुल नहीं, वर्ना क्या ये रिपीट होता?
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क्या ऐसे मुद्दों के प्रति समाज की ओर से कड़ी निंदा के स्वर नहीं आने चाहिए?
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क्या विरोध के स्वर राजनीति और धर्मान्धता से मुक्त नहीं होने चाहिए
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क्या महिला यौन उत्पीड़न के हर मामले को समान गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए
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क्या हमारे कानून में ऐसे कड़े नियम नहीं होने चाहिए जिनसे महिला यौन उत्पीडन जैसी घटनाओं पर पूर्ण अंकुश लग सके
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क्या इन मामलों की फास्टट्रेक सुनवाई कर न्याय प्रक्रिया को शीघ्रता से अंजाम नहीं दिया जाना चाहिए
फिल्म उद्योग चूंकि लाइम लाइट में रहने वाला क्षेत्र है तो ये भी सच है कि यहाँ घटने वाली कोई भी घटना लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं लेकिन आश्चर्य की बात है इसी इंडस्ट्री से जब महिलाओं के साथ यौन शोषण होने का खुलासा हुआ तो किसी ने चिंता ज़ाहिर नहीं की! क्या महिलाएं वो मोहरा हैं जिनकी अस्मिता और सुरक्षा का इस्तेमाल राजनीति के लिए हो रहा है।
एक तरफ एक बार फिर निर्भया के साथ हुई दरिंदगी के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं फिर इस मामले में कोई आवाज़ क्यों नहीं? क्या सिर्फ बलात्कार को ही महिलाओं के साथ यौन शोषण माना जाता है? काम या तरक्की देने के नाम पर किसी महिला से अवांछित डिमांड महिला यौन शोषण के सन्दर्भ में उतनी गंभीर नहीं जितना बलात्कार या हत्या के मामले?
ये मामला सिर्फ मलयालम फिल्म इंडस्ट्री का नहीं है। ये हर उस क्षेत्र का मसला है जहां महिलाएं हैं। हर वो जगह जहां महिलाएं अपने करियर या काम के लिए मौजूद हैं, वहां महिलाओं के खिलाफ यौन शोषण के मामले हैं। नहीं है तो गंभीरता से उनकी सुनवाई।
देश के हर राज्य में है महिलाओं की सुरक्षा हाशिए पर : उत्तर प्रदेश के हाथरस का मामला हो, बदलापुर की बात करें, दिल्ली का निर्भया केस, कोलकाता में ट्रेनी डॉक्टर के साथ हैवानियत या मणिपुर का सामूहिक दुष्कर्म, बड़ी घिनौनी बात ये है कि पुरुष के हर उन्माद का खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ा है।
पुरुष अपनी कुंठा का निशाना महिलाओं को ही बनाता है। बात घरेलू मामलों में महिलाओं के शोषण की हो या किसी भीड़ के सामूहिक उन्माद की निशाना महिलाएँ ही हैं।
क्या बताती है शेख हसीना के कपड़ों की नुमाइश : बंगलादेश की राष्ट्राध्यक्ष शेख हरीना के सरकारी निवास पर जब उन्मादी छात्रों की भीड़ ने हमला बोला तो जिस बेशर्मी से लड़कों के हुजूम ने 70 वर्ष की बुज़ुर्ग महिला के अंतःवस्त्रों की नुमाइश की वो बताता है कि हर देश, हर धर्म में महिला का सम्मान पुरुषों के लिए खेल है। और महिला चाहे किसी देश की प्रमुख ही क्यों न हो पुरुष के दिमाग में वो निशाने पर है।
देश में महिलाओं के यौन शोषण के मामले लगातार बहुधा रूपों में सामने आ रहे हैं। एक समय जब औरत को चार-दीवारी तक सीमित रखा गया, तब उस चार दीवारी में भी वो सुरक्षित नहीं थी। और जब महिलाएं घर की चौखट के दायरे से निकल कर इस संसार में अपना मुकाम तलाशने निकलीं तो कदम-कदम पर उनकी अस्मिता निशाने पर रही और आज भी है।
कड़वी सच्चाई ये है कि ये वो दौर है जब महिलाएँ सबसे ज़्यादा असुरक्षित हैं। और ये सिर्फ बातें नहीं हैं। आकड़ें बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ सबसे ज़्यादा यौन अपराध हो रहे हैं। और इन मामलो में समाज की ये सामूहिक चुप्पी, से नज़रंदाज़ी दिखाती है कि महिलाओं की सुरक्षा के मामले में हम कितने संवेदनहीन हैं।
जीरो टोलेरेंस जैसा जुमला किताबों के लिए नहीं रचा गया बल्कि महिला सुरक्षा के सन्दर्भ में ये व्यवहार में लेने वाली बात है जिस पर सख्ती से अमल होना चाहिए।
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