शुक्रवार, 15 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. जेटली और चिदंबरम की अनूठी दोस्ती की दास्तान
Written By Author अनिल जैन
Last Updated : बुधवार, 9 अक्टूबर 2019 (20:43 IST)

जेटली और चिदंबरम की अनूठी दोस्ती की दास्तान

Jaitley and Chidambaram friendship | जेटली और चिदंबरम की अनूठी दोस्ती की दास्तान
अरुण जेटली और पलानिअप्पन चिदंबरम! दोनों लंबे समय तक देश के वित्तमंत्री रहे। अरुण जेटली लंबे समय तक बीमारी से जूझते हुए इस दुनिया से कूच कर गए और चिदंबरम लंबे समय तक कानूनी प्रक्रियाओं से बचते रहने के बाद फिलहाल जमानत और जेल के बीच सीबीआई की रिमांड पर हैं। दो परस्पर धुर विरोधी दलों की नुमाइंदगी करते हुए भी जेटली और चिदंबरम निजी तौर पर गहरे दोस्त रहे।
 
लंबे समय तक देश की अर्थव्यवस्था के नियामक रहे दोनों नेताओं के व्यक्तित्व में कई तरह की समानताएं रहीं। संभवत: ये समानताएं ही उनकी दोस्ती का आधार थीं। मसलन दोनों देश के जाने-माने वकीलों में शुमार रहे। दोनों को वित्त मंत्रालय से बेहद लगाव रहा। दोनों का अंदाज-ए-सियासत और अंदाज-ए-हुकूमत भी एक जैसा ही रहा। दोनों का अपने मंत्रित्वकाल में विवादों से गहरा नाता रहा लेकिन बावजूद इसके दोनों की गिनती भद्र नेताओं में होती रही।
 
कॉर्पोरेट घरानों से भी दोनों की गहरी यारी रही और दोनों पर अपने कॉर्पोरेट यारों के हित में सत्ता का इस्तेमाल करने के आरोप भी लगे। देश की बैंकिंग व्यवस्था के मौजूदा संकट का 'श्रेय' भी वित्तमंत्री रहने के नाते दोनों के खाते में बराबर रूप से जाता है।
 
वित्तमंत्री के रूप में दोनों ने ही खूब जनविरोधी फैसले लिए और दोनों के कार्यकाल में गांव तथा खेती-किसानी की बदहाली में इजाफा हुआ। कुल मिलाकर संक्षेप में कहें तो अरुण जेटली भाजपा के पी. चिदंबरम थे और चिदंबरम कांग्रेस के अरुण जेटली हैं। दरअसल, जेटली और चिदंबरम की दोस्ती इतनी गहरी थी कि कई मौकों पर उन्होंने एक-दूसरे की मदद करने के लिए दलीय हितों को अनदेखा और दलीय सीमाओं को पार करने में भी संकोच नहीं किया।
 
इस सिलसिले में मौजूदा केंद्रीय मंत्री और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी से जुड़ा मामला उल्लेखनीय और बेहद दिलचस्प है। बात करीब 7 साल पुरानी यानी 2012 के आखिरी की है। नितिन गडकरी उस भाजपा के अध्यक्ष थे। पार्टी अध्यक्ष के रूप में यह उनका पहला कार्यकाल था, जो समाप्त होने वाला था।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेतृत्व चाहता था कि गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल भी मिले यानी 2014 का चुनाव भाजपा उन्हीं के नेतृत्व में लड़े। संघ नेतृत्व की चाहत पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और उनके समर्थकों को मंजूर नहीं थी। गडकरी पहली बार भी आडवाणी की इच्छा के विपरीत पार्टी अध्यक्ष बने थे। हालांकि उस समय तक आडवाणी संघ की निगाह से उतर चुके थे, लेकिन पार्टी पर उनका दबदबा काफी हद बना हुआ था।
 
संसद के दोनों सदनों में पार्टी और विपक्ष के नेता भी उनके भरोसेमंद सुषमा स्वराज और अरुण जेटली थे और संसदीय दल के अध्यक्ष तो वे खुद थे ही। लगभग सभी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी उनके ही फरमाबरदार थे। उनकी प्रधानमंत्री बनने की हसरत भी खत्म नहीं हुई थी, लिहाजा वे अपने ही किसी विश्वस्त को पार्टी का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। उस समय अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के साथ ही वेंकैया नायडू और अनंत कुमार की गिनती भी आडवाणी के बेहद भरोसेमंद नेताओं में होती थी। भाजपा की केंद्रीय राजनीति में इन चारों नेताओं की मंडली को आडवाणी की 'डी फोर कंपनी' भी कहा जाता था।
 
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आमद नहीं हुई थी और भाजपा की अंदरुनी राजनीति में उन्हें भी आडवाणी खेमे का ही माना जाता था। वे भी अध्यक्ष के रूप में गडकरी को नापसंद करते थे। उनकी नापसंदगी तो इस हद तक थी कि जब तक गडकरी अध्यक्ष रहे, उन्होंने पार्टी कार्यसमिति और पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की हर बैठक से दूरी बनाए रखी थी।
 
कुल मिलाकर पूरा आडवाणी खेमा गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल देने के खिलाफ था, लेकिन संघ का खुलकर विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। अरुण जेटली उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे और वित्त मंत्रालय संभाल रहे चिदंबरम से उनकी दोस्ती जगजाहिर थी।
 
भाजपा में अध्यक्ष पद के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। गडकरी दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए नामांकन दाखिल कर चुके थे। चूंकि संघ नेतृत्व साफ तौर पर गडकरी के साथ था, लिहाजा पार्टी में किसी भी नेता में यह हिम्मत नहीं थी कि वह संघ नेतृत्व के खिलाफ खड़े होने या दिखने दुस्साहस कर सके। यह लगभग तय हो चुका था कि गडकरी ही निर्विरोध दोबारा अध्यक्ष चुन लिए जाएंगे।
 
लेकिन निर्वाचन की तारीख से 4-5 दिन पहले अचानक गडकरी के व्यावसायिक प्रतिष्ठान 'पूर्ति समूह' से जुड़ी कंपनियों के ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मार दिए। छापे की कार्रवाई 2 दिन तक चली। पूरा मामला मीडिया में छाया रहा। आडवाणी खेमे ने मीडिया प्रबंधन के जरिए गडकरी पर इस्तीफे का दबाव बनाया।
 
जेटली को निर्विवाद रूप से मीडिया प्रबंधन का 'उस्ताद' माना जाता था। छापे की कार्रवाई में क्या मिला, इस बारे में आयकर विभाग की ओर से कोई जानकारी नहीं दी गई थी लेकिन 'सुपारी किलर' की भूमिका निभा रहे मीडिया के एक बड़े हिस्से ने गडकरी के खिलाफ 'सूत्रों' के हवाले से खूब मनगढ़ंत खबरें छापीं।
 
टीवी चैनलों ने तो अपने स्टूडियो में एक तरह से 'अदालत' लगाकर गडकरी पर मुकदमा ही शुरू कर दिया। अध्यक्ष के रूप में उनके दूसरी बार होने वाले निर्वाचन को नैतिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा। मीडिया में यह सब तक चलता रहा, जब तक कि गडकरी अपना नामांकन वापस लेकर अध्यक्ष पद की दौड़ से हट नहीं गए।
 
कहा जाता है और भाजपा में भी कई लोग दबे स्वर में स्वीकार करते हैं कि भाजपा के अंदरुनी सत्ता-संघर्ष के चलते गडकरी के यहां आयकर के छापे की कार्रवाई के पीछे जेटली का ही दिमाग था और उन्होंने चिदंबरम से मिलकर इस ऑपरेशन को अंजाम दिलवाया था। कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी इस योजना को आडवाणी और मोदी की सहमति भी हासिल थी। खुद गडकरी ने भी अपने यहां छापे की कार्रवाई को एक बड़ी राजनीतिक साजिश करार दिया था।
 
जो भी हो, गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल न मिलने से भाजपा के सारे अंदरुनी समीकरण उलट-पुलट हो गए। अपने दोस्त जेटली की खातिर गडकरी के यहां छापे डलवाने का चिदंबरम का फैसला न सिर्फ भाजपा की बल्कि देश की राजनीति को भी प्रभावित करने वाला साबित हुआ। चिदंबरम और कांग्रेस पार्टी आज जिस संकट से गुजर रहे हैं, उसकी एक बड़ी वजह प्रकारांतर से वह फैसला भी है।
 
गडकरी के मैदान से हटने पर अध्यक्ष के लिए नए नामों पर विचार शुरू हुआ। आडवाणी की ओर से सुषमा स्वराज और अरुण जेटली का नाम आगे बढ़ाया गया लेकिन संघ की ओर दोनों नाम खारिज कर दिए गए। आखिरकार संघ की पसंद के तौर राजनाथ सिंह के नाम आम सहमति बनी और वे एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष चुन लिए गए।
 
अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह के निर्वाचन की घोषणा के तीन दिन बाद आयकर विभाग की ओर से साफ किया गया कि गडकरी के यहां छापों की कार्रवाई में कुछ नहीं मिला। लेकिन इससे क्या होना था, आडवाणी खेमे का मकसद तो पूरा हो ही चुका था।
 
गडकरी के हाथों से दूसरी बार अध्यक्ष बनने का मौका झटककर जहां आडवाणी और उनके समर्थक राहत महसूस कर रहे थे, वहीं संघ नेतृत्व बुरी तरह आहत था। उसे यह अच्छी तरह अहसास हो चुका था कि गडकरी को छलपूर्वक दूसरी बार अध्यक्ष बनने से रोका गया है।
 
संघ नेतृत्व को मात देने के बाद आडवाणी आश्वस्त हो गए थे कि 2014 के आम चुनाव में भी भाजपा और एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद की उनकी उम्मीदवारी में कोई अड़चन नहीं आएगी। लेकिन इसी बीच उनके पट शिष्य माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षाएं भी अंगड़ाई लेकर दिल्ली की ओर देखने लगी थीं जिसका ठीक-ठीक अंदाजा शायद आडवाणी को नहीं था।
 
आडवाणी यह भी अंदाजा नहीं लगा पाए कि अध्यक्ष पद के चुनाव में गडकरी को ठिकाने लगाने में अहम भूमिका निभाने वाले उनके खास सिपहसालार अरुण जेटली कब पूरी तरह से मोदी के खैरख्वाह होकर उनकी पालकी के कहार बन गए।
 
12 वर्ष तक गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए 'हिन्दू हृदय सम्राट' और 'विकास पुरुष' की छवि धारण कर चुके मोदी का संघ के समर्थन से राष्ट्रीय राजनीति में किस तरह अवतरण हुआ, यह एक अलग कहानी है, लेकिन इस कहानी की यह पूरी प्रस्तावना या पृष्ठभूमि तैयार करने में चिदंबरम का जो परोक्ष योगदान रहा, उसे और कोई याद रखे या न रखे, मगर गडकरी तो निश्चित ही नहीं भूले होंगे।
 
गिरफ्तार होकर सीबीआई के सवालों का सामना कर रहे चिदंबरम को भी पता नहीं, गडकरी से जुड़ा यह घटनाक्रम याद आ रहा होगा या नहीं, लेकिन जेटली से अपनी दोस्ती तो उन्हें निश्चित ही याद आ रही होगी, जो पूरी तरह स्वस्थ और सक्रिय रहने तक सत्ता शिखर पर बैठे अपने नेता की टेढ़ी नजर और कानूनी शिकंजे से उन्हें बचाते रहे।  (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)