• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. appeal of the Prime Minister Narendra Modi
Written By Author अनिल जैन

भारत की घटनाओं पर वैश्विक प्रतिक्रिया और प्रधानमंत्री की अपील की मायने

भारत की घटनाओं पर वैश्विक प्रतिक्रिया और प्रधानमंत्री की अपील की मायने - appeal of the Prime Minister Narendra Modi
भारत में कोरोना महामारी की आड़ में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ जिस तरह सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर सुनियोजित नफरत-अभियान और मीडिया ट्रायल चलाया जा रहा है, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया होने लगी है। कुछ दिनों पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस तरह का अभियान बंद करने की अपील की थी।
 
यूरोपीय देशों के मीडिया में भी भारत की इन घटनाओं की खूब रिपोर्टिंग हो रही है और अब खाडी के देशों में भी सख्त प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। रविवार को कुवैत सरकार की ओर से एक के बाद एक चार ट्वीट करते हुए भारत में कोरोना महामारी फैलने के लिए मुस्लिम समुदाय को जिम्मेदार ठहराने और मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने की घटनाओं पर चेतावनी देने के अंदाज में चिंता जताई गई। इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी ने भी भारत में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए जारी अभियान और उन्हें प्रताड़ित किए जाने की कड़ी निंदा की है, जिस पर संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय राजदूत पवन कपूर को ट्वीट करके सफाई देनी पड़ी है। संभव है कि आने वाले दिनों में अन्य देशों से भी इसी तरह की प्रतिक्रिया आए।
 
संभवतया इन्हीं प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी रविवार को ट्वीट करके कहना पड़ा कि कोरोना नस्ल, जाति, धर्म, रंग, भाषा और देशों की सीमा नहीं देखता, इसलिए एकता और भाईचारा बनाए रखने की जरूरत है। कुछ दिनों पहले ही भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी अपनी पार्टी के नेताओं से अपील की थी कि वे कोरोना महामारी को लेकर सांप्रदायिक नफरत फैलाने वाले बयान देने से परहेज बरतें।

तो इस प्रकार इन सारी प्रतिक्रियाओं से इस बात की तसदीक तो होती ही है कि भारत में कोरोना महामारी का राजनीतिक स्तर पर सांप्रदायिकीकरण कर एक समुदाय विशेष के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। यह सब करते हुए इस बात पर जरा भी विचार नहीं किया जा रहा है कि इसका खाड़ी के देशों में रह रहे लाखों भारतीयों के जीवन पर क्या प्रतिकूल असर हो सकता है। 
 
हकीकत यह भी है कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के अध्यक्ष भले ही औपचारिक तौर पर चाहे जो कहें, मगर कोरोना को लेकर सांप्रदायिक राजनीति सरकार की ओर से भी हो रही है और सत्तारूढ पार्टी और उसके सहयोगी संगठन भी इस अपने राजनीतिक एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए महामारी की इस चुनौती को एक अवसर के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। 
 
अगर ऐसा नहीं होता तो भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल रोजाना की प्रेस ब्रीफिंग में संप्रदाय के आधार पर कोरोना मरीजों के आंकड़े नहीं बताते, गुजरात में कोरोना मरीजों के इलाज के लिए हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग वार्ड नहीं बनाए जाते, भाजपा कार्यकर्ता गली, मोहल्लों और कॉलोनियों में फल-सब्जी बेचने वाले मुसलमानों के बहिष्कार का अभियान नहीं चलाते, पुलिस लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर निकले लोगों का नाम पूछकर पिटाई नहीं करती, जरूरतमंद गरीबों को सरकार की ओर से बांटी जाने वाली राहत सामग्री, भोजन के पैकेट और गमछों पर प्रधानमंत्री की तस्वीर और भाजपा का चुनाव चिह्न नहीं छपा होता, भाजपा का आईटी सेल अस्पतालों में भर्ती तबलीगी जमात के लोगों को बदनाम करने के लिए डॉक्टरों पर थूकने वाले फर्जी वीडियो और खबरें सोशल मीडिया में वायरल नहीं करता और खुद प्रधानमंत्री लॉकडाउन के दौरान लोगों से एकजुटता दिखाने के नाम पर थाली, घंटा, शंख आदि बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने जैसी धार्मिक प्रतीकों वाली अपील जारी नहीं करते। 
 
कोरोना महामारी की आड़ में एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने और सत्तारूढ़ दल के पक्ष में अभियान चलाने का काम सिर्फ सरकार और संगठन के स्तर पर ही नहीं हो रहा है, बल्कि मुख्यधारा के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी इस काम में बढ़-चढ़ कर शिरकत कर रहा है।
 
तमाम टीवी चैनलों पर प्रायोजित रूप से तबलीगी जमात के बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ मीडिया ट्रायल चलाया जा रहा है। यही नहीं, पिछले दिनों जब मीडिया को सांप्रदायिक नफरत फैलाने से रोकने के लिए एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई तो प्रधान न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने प्रेस की आजादी की दुहाई देते हुए उस याचिका को खारिज कर दिया।
 
अगर इस तरह के संगठित अभियान को लेकर प्रधानमंत्री जरा भी चिंतित होते तो इतनी देरी से एक अपील जारी करने की खानापूर्ति करने के बजाय वे इस तरह का अभियान चलाने वालों को सख्त चेतावनी देते। कोरोना काल में पिछले एक महीने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने चार बार टीवी पर राष्ट्र को संबोधित किया है, लेकिन उन चारों संबोधनों में उन्होंने एक बार भी इस महामारी का सांप्रदायिकीकरण करने के अभियान पर न तो नाराजगी जताई, न ही अभियान चलाने वालों को कोई चेतावनी दी और न ही नफरत फैलाने वाली खबरें दिखाने और बहस कराने वाले टीवी चैनलों को नसीहत दी।
 
अगर प्रधानमंत्री मोदी वाकई इस तरह के अभियान से नाखुश होते तो निश्चित ही सख्त लहजे में अपनी नाराजगी जताते और अपने समर्थकों तथा मीडिया को ऐसा करने से बाज आने को कहते। कोई कारण नहीं कि उनका समर्थक वर्ग और मीडिया उनके कहे को नजरअंदाज कर देता। लेकिन प्रधानमंत्री ने ऐसा करना जरूरी नहीं समझा।
 
प्रधानमंत्री के इसी रवैये से ही नफरत फैलाने का यह अभियान परवान चढ़ता गया है। प्रधानमंत्री ने रविवार को जो अपील जारी की है, उसका कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है। क्योंकि ऐसी अपीलें वे पहले भी कई मौकों पर जारी कर चुके हैं और वे बेअसर साबित हुई हैं।
 
जब देश भर में गोरक्षा के नाम दलितों के उत्पीड़न की घटनाएं हो रही थीं तब भी प्रधानमंत्री ने नाटकीय अंदाज में कहा था कि 'आप चाहो तो मुझे मार लो मगर मेरे दलित भाइयों का उत्पीडन मत करो।’ देश ने देखा है कि उनके इस बयान के बाद भी दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई। इसी तरह जब भाजपा की सांसद और आतंकवादी वारदातों की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर ने जब महात्मा गांधी के मुकाबले नाथूराम गोडसे को महान बताने वाला बयान दिया तब भी प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि था कि 'मैं इसके लिए उन्हें कभी भी मन से माफ नहीं कर पाऊंगा।’ उनके इस बयान का न तो प्रज्ञा ठाकुर पर कोई असर हुआ और न ही उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं पर। राष्ट्रपिता के बारे में अपमानजनक टिप्पणियों का सिलसिला अभी भी जारी है।
 
यहां तक कि गोडसे के मंदिर बनाने और महात्मा गांधी के पुतले पर गोली चलाने जैसी घटनाएं भी हुई हैं, लेकिन किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। इसीलिए यह मानने की कोई वजह नहीं है कि प्रधानमंत्री की ताजा अपील के बाद कोरोना महामारी की आड़ में जारी धार्मिक और सांप्रदायिक नफरत फैलाने का संगठित अभियान थम जाएगा।
 
कोरोना महामारी की चुनौती का सामना तो भारत सहित पूरी दुनिया किसी तरह कर ही लेगी और इस संकट से उबर भी जाएगी। देर-सवेर कोरोना वायरस से बचाव का वैक्सिन भी ईजाद हो ही जाएगा। कोरोना संक्रमण के चलते गहरे गड्ढे में जा धंसी हमारी अर्थव्यवस्था भी कुछ सालों में पटरी पर आ जाएगी। लेकिन हमारे देश में सांप्रदायिक और धार्मिक नफरत के वायरस का संक्रमण जिस तेजी से फैल रहा है, उसका वैक्सिन आसानी से तैयार नहीं हो पाएगा। ऐसी स्थिति में हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को कैसी और कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी, इसका अंदाजा लगाना किसी के लिए भी आसान नहीं है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 
ये भी पढ़ें
आज का इतिहास : भारतीय एवं विश्व इतिहास में 22 अप्रैल की प्रमुख घटनाएं