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Run for Nuclear Bomb: कहानी पहले परमाणु बम के लिए जर्मन-अमेरिकी होड़ की

Oppenheimer
Story Of Oppenheimer and Nuclear Bomb : परमाणु के जनक कहे जाने वाले रॉबर्ट ओपनहाइमर पर बनी फिल्‍म ओपनहाइमर को लेकर दुनियाभर में चर्चा है। इस फिल्‍म से जहां भारतीय धार्मिक ग्रंथ श्रीमद भगवत गीता को लेकर एक विवाद पैदा हो गया है, वहीं इस फिल्‍म ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी की तबाही की यादों को भी ताजा कर दिया है। इसी पूरे विषय पर पढ़िए वेबदुनिया की ये पूरी रिपोर्ट।

'परमाणु बम के पिता' कहलाने वाले रॉबर्ट ओपनहाइमर के बारे में इस समय एक फ़िल्म चल रही है। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर मानव इतिहास के प्रथम दो परमाणु गिराए जाने को इन्हीं दिनों 78 वर्ष पूरे हो रहे हैं। यह मौका है आठ दशक \पूर्व, जर्मनी और अमेरिका के बीच चली उस होड़ को जानने-समझने का, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में प्रलयंकारी परमाणु बम को जन्म दिया।

कहावत है, आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। वास्तव में हर युग, बल्कि हर युग ही नहीं, हर युद्ध भी आविष्कारों की मांग करता है। पिछली 20वीं सदी में दो-दो विश्व युद्ध हुए। उन्हें जीतने के लिए ऐसे नए हथियारों की ज़रूरत महसूस हुई, जो दूसरे पक्ष के पास न हों। 1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध के अंतिम दिनों में– कोई अनिवार्यता न होने के बावजूद –  जापान पर गिराए गए दोनों परमाणु बम नए हथियारों के आविष्कार वाली इसी सनक की देन थे।
Oppenheimer
परमाणु ऊर्जा के अग्रणी खोजीः उस समय कई नामी भौतिक-शास्त्री थे, पर दो वैज्ञानिक – जर्मनी के वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग और अमेरिका के रॉबर्ट ओपनहाइमर – परमाणु ऊर्जा के अग्रणी खोजी माने जाते थे। दोनों इस दृष्टि से जर्मन ही थे कि ओपनहाइमर के माता-पिता अमेरिका में बस गए जर्मन यहूदी थे। दोनों एक-दूसरे से परिचित थे। एक-दूसरे को भलीभांति जानते थे। यह भी जानते थे कि यूरेनियम से परमाणु ऊर्जा प्राप्त करने के अलावा परमाणु बम भी बनाया जा सकता है।

अमेरिका और जर्मनी को उस समय एक ही लक्ष्य दिखाई पड़ रहा था – जैसे भी हो युद्ध जीतना है। ख़र्च की परवाह नहीं करनी है, हालांकि जर्मन अर्थव्यवस्था 1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की हार से ख़स्ताहाल थी। हाइज़ेनबेर्ग जैसे उस समय के देशभक्त जर्मन वैज्ञानिक अपने देश की हार से बहुत बहुत आहत थे। वे जर्मनी को जल्द ही पुनः शक्तिशाली बनते देखना चाहते थे।

क्वान्टम मैकेनिक्सः हाइज़ेनबेर्ग ने ही 1925 में क्वान्टम मैकेनिक्स का पहला गणितीय सिद्धांत प्रस्तुत किया था। उसके अनुसार, अणु-परमाणु केवल गणितीय संख्याएं हैं। वे कण भी हैं और तरंग भी हैं। उनका कणत्व और तरंगत्व एक-दूसरे के पूरक हैं। हम किसी कण की गति और स्थिति को एक साथ नहीं जान सकते। क्वान्टम मैकेनिक्स के गूढ़ रहस्यों को समझने में हाइज़ेनबेर्ग के योगदान के लिए 1933 में उन्हें भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। यह भी एक विडंबना ही थी कि 1933 में ही हिटलर ने जर्मनी की सत्ता हथिया ली।

क्वान्टम फ़िज़िक्स (प्रमात्रा भौतिकी) विज्ञान की एक ऐसी नई शाखा है, जो उदाहरण के लिए खोजती है कि कोई चीज़ कैसे ग़ायब हो जाती है और किसी दूसरी जगह पर पुनः प्रगट भी हो जाती है। इसी प्रकार कोई चीज़ एक ही समय दो जगहों पर कैसे विद्यमान हो सकती है।

अवतारों-देवताओं का लुप्त और प्रगट होनाः भारत में हम अपने अवतारों और देवी-देवताओं के बारे में पढ़ते-सुनते रहे हैं कि वे क्षण भर में लुप्त हो जाते थे और अन्यत्र कहीं प्रगट भी हो जाते थे! तो क्या वे क्वान्टम मैकेनिक्स के ज्ञाता थे? स्वयं को ही ग़ायब कर देने और कहीं और प्रगट होने की कला या उसका जादुई मंत्र जानते थे? हम तो इसे कपोलकल्पना ही मानते रहे हैं। पर वर्तमान में कुछ इसी प्रकार का 'टेलीपोर्टेशन' (दूरवहन)  एक बहुत ही महत्वपूर्ण विज्ञान बन गया है, जिसे लेकर अमेरिका और ऑस्ट्रिया जैसे कई देशों में गंभीर शोधकार्य हो रहे हैं।
भौतिकी (फ़िज़िक्स) के अनुसार, सब कुछ परमाणु का, और परमाणु का नाभिक प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन कणों का बना होता है। नाभिक के इर्द-गिर्द उतने ही इलेक्ट्रॉन परिक्रमा करते हैं, जितने प्रोटॉन कण नाभिक में होते हैं। नाभिक और इलेक्ट्रॉन के बीच का ज्यादातर स्थान ख़ाली होता है। सूर्य से लाखों-करोड़ों किलोमीटर दूर रह कर उसकी परिक्रमा कर रहे हमारे ग्रहों के समान, पदार्थ तथा शून्य के इसी मेल से चराचर जगत की हर चीज बनी है।

जर्मन 'यूरेनियम परियोजना':  वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग 1942 से 1945 तक बर्लिन विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफ़ेसर और साथ ही भौतिक शास्त्र के उस समय के एक प्रसिद्ध संस्थान के   निदेशक भी रहे। उनका सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह था कि 1933 से हिटलर जर्मनी का निरंकुश शासक था। 1939 में पोलैंड पर आक्रमण के साथ हिटलर ने द्वितीय विश्व युद्ध छेड़ दिया। मई 1942 में जर्मन सेना ने हाइज़ेनबेर्ग सहित कुछ और वैज्ञानिकों से कहा कि उन्हें राष्ट्रीय 'यूरेनियम परियोजना' के लिए 'यूरेनियम 235' वाले आइसोटोप (समस्थानिक) का इस तरह संवर्धन करना है, जिससे बम बनाया जा सके। हाइज़ेनबेर्ग इससे खुश नहीं थे, पर यह भी जानते थे कि वे इस बला से अपना पिंड छुड़ा नहीं सकते।
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अमेरिकी 'मैनहटन परियोजना': 1942 वाले उन्हीं दिनों जर्मनी से 9 हज़ार किलोमीटर दूर, अमेरिका के पैसाडेना में रॉबर्ट ओपनहाइमर को तथातथित 'मैनहटन परियोजना'  के निदेशक का कार्यभार सौपा गया। इस कोड नाम वाली परियोजना का लक्ष्य था, अमेरिका के लिए परमाणु बम बनाना। हाइज़ेनबेर्ग के क्वान्टम मैकेनिक्स तथा अन्य सिद्धांतों का अध्ययन ओपनहाइमर ने भी किया था। अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में भौतिक और रसायन शास्त्र की पढ़ाई के साथ-साथ लैटिन और ग्रीक भाषा भी सीखी थी। किसी समय उन्होंने संस्कृत भी सीखी थी। भगवत गीता को संस्कृत में पढ़ा था और उससे बहुत प्रभावित भी हुए थे।

1920 वाले दशक के मध्य में ओपनहाइमर ने कुछ समय ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रयोग आदि किये थे और परमाणु की संरचना तथा क्वान्टम मैकेनिक्स पर कई लेख आदि लिखे थे। उनके कार्यों से प्रभावित हो कर जर्मनी के एक दूसरे भौतिक शास्त्री माक्स बोर्न ने उनके लिए जर्मनी के ग्यौटिंगन विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि प्राप्त करने की व्यवस्था की।

परमाणु भौतिकी के महारथीः ग्यौटिंगन विश्वविद्यालय परमाणु भौतिकी के अध्ययन एवं शोध का उस समय सबसे प्रसिद्ध केंद्र हुआ करता था। वहीं परमाणु भौतिकी के बड़े-बड़े नामों–  वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग, नील्स बोर, वोल्फ़गांग पाउली, एनरीको फ़ेर्मी, एडवर्ड टेलर और पस्काल जोर्दां जैसे महारथियों से ओपनहाइमर का पहला परिचय हुआ। जल्द ही उनकी गिनती भी क्वान्टम मैकेनिक्स के नामी वैज्ञानिकों में होने लगी। 1926 से 1929 के बीच उनके लिखे 16 लेख प्रकाशित हुए।

अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध में तब कूदा था, जब नाज़ी जर्मनी के मित्र जापान ने, 7 दिसंबर 1941 को, अमेरिका के प्रशांत महासागरीय नौसौनिक अड्डे पर्ल हार्बर पर अकस्मात बमबारी कर उसे तहस-नहस कर दिया। यदि जापान ने यह दुस्साहस न किया होता, तो हो सकता था कि अमेरिका युद्ध में नहीं कूदता। अमेरिका को भनक मिल गई थी कि दुनिया का पहला परमाणु बम बनाने के लिए जर्मनी ने एक 'यूरेनियम परियोजना' बनाई है।

मरुस्थल में लैबः जर्मनी को पछाड़ने के लिए अमेरिका में भी बड़ी तेज़ी से 1942 में ही अत्यंत गोपनीय 'मैनहटन प्रॉजेक्ट' गढ़ा गया। रॉबर्ट ओपनहाइमर उसके वैज्ञानिक पक्ष का निदेशक बनाए गए। उनसे कहा गया कि वे देश के सर्वोत्तम वैज्ञानिकों को जुटाएं। इस परियोजना की परम गोपनीयता को ध्यान में रखते हुए ओपनहाइमर ने अमेरिका के न्यू मेक्सिको मरुस्थल में, 2 किलोमीटर की ऊंचाई पर, 'लोस अलामोस नैश्नल लैबोरैटरी'  बनवाई और वहां कुल करीब 3000 वैज्ञानिक एवं अन्य प्रकार के कर्मी जुटाए।

पहले तो यही स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि यूरेनियम के किसी परमाणु (ऐटम) को खंडित किया कैसे जाए। तभी पता चला कि एक जर्मन टीम यूरेनियम के परमाणु को खंडित करने में सफल रही है। पहले तो यह दावा असंभव सा लगा, किंतु कुछ ही समय बाद ओपनहाइमर की टीम भी ऐसा करने में सफल रही। उनके वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया कि यूरेनियम के किसी परमाणु के नाभिक को खंडित करने पर कोयले को जलाने की अपेक्षा 5 करोड़ गुना अधिक ऊर्जा मुक्त हो सकती है।

सेना के लिए परमाणु बमः किसी एकल परमाणु को खंडित करने पर वैसे तो बहुत ही कम ऊर्जा मुक्त होती है। किंतु यदि बहुत सारे परमाणुओं को एकसाथ खंडित किया जा सके, तो बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा मुक्त होगी। तब भी, प्रश्न यह था कि क्या ऐसा करना संभव भी है? कोई परमाणु अस्त्र तब तक मात्र एक सैद्धांतिक कलपना भर लग रहा था। न तो वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग ने और न ही रॉबर्ट ओपनहाइमर ने इससे पहले कभी सोचा था कि उन्हें किसी सेना के लिए परमाणु बम भी बनाना पड़ सकता है।

सबसे बड़ी समस्या यह थी कि हिटलर ने जर्मनी को अपराजेय-सी लगती युद्ध शक्ति में बदल दिया था। यूरोप में एक के बाद एक देश पर नाज़ी जर्मनी का क़ब्ज़ा होता जा रहा था। हाइज़ेनबेर्ग का अनमनापन देख कर जर्मन सेना के एक अंग 'वाफ़न एसएस' ने आरोप लगाया कि वे आइनश्टाइन की भौतिकी से प्रभावित हो कर भ्रम फैला रहे हैं।
हाइज़ेनबेर्ग की दुविधाः हाइज़ेनबेर्ग को लगा कि उन्हें  आइनश्टाइन, नील्स बोर और माक्स प्लांक जैसे यहूदी वैज्ञानिकों की पांत में बैठाया जा रहा है। वे देशभक्त तो थे,पर नाज़ियों की फ़ासिस्ट विचारधारा से सहमत नहीं थे। एक बड़े अंतर्द्वंद्व से घिर गए थे। पूरे एक साल तक उनसे पूछताछ होती रही। हार मान कर उन्हें दिखाना पड़ा कि वे जर्मनी के प्रति निष्ठावान हैं।

1939 मे द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने से कुछ ही पहले वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग अमेरिका गए थे और वहां वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में भाग लिया था। उस सम्मेलन में परमाणु विखंडन से जुड़ी नवीनतम खोजों पर चर्चा हुई थी। विश्व के सबसे विख्यात वैज्ञानक वहां एकत्रित हुए थे। उस समय हाइज़ेनबेर्ग के सामने अमेरिका में रह कर पढ़ाने के आकर्षक प्रस्ताव भी रखे गए थे, किंतु उन्होंने सारे प्रलोभन ठुकरा दिये। स्वदेश लौट गए। वहां उन्होंने पाया कि वे अपने शोधकार्यों के लिए पहले जैसे स्वतंत्र नहीं रहे। उनके लौटते ही हिटलर की सनक के कारण दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ने में भी देर नहीं लगी। कुछ ही समय बाद, जैसे ही पता चला कि परमाणु के नाभिक में छिपी ऊर्जा को किस प्रकार मुक्त किया जा सकता है, यह कल्पना भी होने लगी कि इस ऊर्जा वाले परमाणु बम को बनाना भी संभव होना चाहिये। जर्मनी और अमेरिका की सरकारों ने इसे अपना लक्ष्य बना लिया। जर्मनी के नाज़ियों ने हाइज़ेनबेर्ग से उन्हीं दिनों कहा कि उन्हें एक नवगठित यूरेनियम टीक के साथ काम करना होगा। एक रिएक्टर बनाना होगा और देखना होगा कि क्या उसकी सहायता से परमाणु विखंडन किया जा सकता है।

आइनश्टाइन ने पत्र लिखाः अमेरिका में परमाणु बम के लिए काम तब शुरू हुआ, जब अल्बर्ट आइनश्टाइन ने वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति रूज़वेल्ट के नाम एक पत्र लिखा। आइनश्टाइन ने लिखा कि उन्हें डर है कि जर्मन वैज्ञानिक बहुत जल्द ही एक ऐसा महाअस्त्र बना सकते हैं, जो एक बहुत बड़े इलाके को तहस-नहस कर सकता है। रूज़वेल्ट ने इस चेतावनी को बहुत गंभीरता से लिया। उनके आदेश पर, अक्टूबर 1941 में, अत्यंत गोपनीय 'मैनहटन प्रॉजेक्ट'  शुरू किया गया, जिसके लिए उस सममय के बेल्जियन उपनिवेश काँगो से 1250 टन खनिज यूरेनियम मंगाना पड़ा। अमेरिकी सेना के जनरल लेस्ली ग्रोव्स से कहा गया कि वे 'मैनहटन प्रॉजेक्ट'  के लिए एक अच्छा वैज्ञानिक निदेशक ढूंढें। ग्रोव्स थोड़े अक्खड़ स्वभाव के थे। वैज्ञनिकों से उनकी पटती नहीं थी, क्योंकि वे उन्हें अपनी उंगली के इशारे पर नचा नहीं पाते थे। रॉबर्ट ओपनहाइमर उस समय अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे। उन्हें भी तब तक किसी वैज्ञानिक सेमिनार के संचालन से अधिक कोई दूसरा अनुभव नहीं था।
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ओपनहाइमर बने निदेशकः जनरल ग्रोव्स ने लेकिन जब ओपनहाइमर से बात की, तो उन्हें लगा कि परमाणु बम बनाने के काम के लिए उनसे बेहतर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हो सकता। 20वीं सदी की सबसे महत्वाकांक्षी, युगप्रवर्तक और प्रलंकारी परियोजना को पूरा करने का कार्यभार इस प्रकार उस समय मात्र 41 साल के जूलियस रॉबर्ट ओपनहाइमर को मिला। इसी के साथ पृथ्वी पर परमाणु युग का सूत्रपात भी हुआ। केवल समय और पैसा तय करता कि कौन सबसे पहले परामाणु बम बना लेगा – जर्मनी या अमेरिका। अमेरिकी डर रहे थे कि शायद जर्मन ही सबसे पहले बम बना लेंगे। जर्मनों के पास खूब यूरेनियम था। हाइज़ेनबेर्ग थे। तब भी, दावे के साथ कोई नहीं कह सकता था कि एक बम के भीतर परमाणु विखंडन की श्रृखला कैसे शुरू की जा सकती है। किसी प्रयोग द्वारा इसे पहले सिद्ध किया जाना चाहिये।

विखंडन की श्रृखला का पहला प्रमाणः जर्मनी में हाइज़ेनबेर्ग ने इस प्रयोग के लिए सबसे पहले एक छोटा-सा परमाणु रिएक्टर बनाया। एक गोले में यूरेनियम और भारी जल (हैवी वॉटर) की कई परतें बनाईं। तब उन पर न्यूट्रोनों की बौछार की गई। इस प्रयोग कें अंत में न्यूट्रोनों की संख्या यदि प्रयोग के आरंभ के समय से अधिक पायी गई, तो इसका अर्थ यही होता कि हां, यूरेनियम के परमाणुओं के नाभिक विखंडित हुए हैं। विखंडन की श्रृखला पैदा करने का यह पहला प्रमाण होता। यह एक निर्णायक प्रयोग था। हाइज़ेनबेर्ग के इस प्रयोग से यह सिद्ध हो गया कि परमाणु विखंडन की एक श्रृखला सचमुच संभव है। यह एक आरंभ भर था। किसी परमाणु बम के लिए पर्याप्त मात्रा में विखंडनीय सामग्री पाना है, तो औद्योगिक स्तर पर उसके उत्पादन की ज़रूरत पड़ेगी। उस समय केवल 60 कर्मचारियों वाला जर्मन यूरेनियम प्रॉजेक्ट इससे कोसों दूर था। बम बनाने का जर्मन सपना यहीं तक रह गया। किंतु अमेरिकियों ने तय कर लिया था कि वे तो हर हाल में बम बना कर ही रहेंगे।

तंबू के नीचे काम शुरू किया
जनरल लेस्ली ग्रोव्स और रॉबर्ट ओपनहाइमर अपने गोपनीय कार्य के लिए कोई ऐसी एकांत जगह चाहते थे, जो जिज्ञासुओं की पहुंच से बहुत दूर हो। ओपनहाइमर अपने लड़कपन के दिनों से न्यू मेक्सिको में एक ऐसी ही जगह जानते थे, जो सैन्टा फ़े से 50 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में पड़ती है– लोस अलामोस। वहां शुरू-शुरू में एक तंबू के नीचे परमाणु विज्ञान के सबसे धुरंधर अमेरिकी ज्ञाताओं ने डेरा डाला और अपना काम शुरू किया। हर कोई यही सोच रहा था कि यदि जर्मनों ने बाज़ी मार ली, तो वे अपना मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। लोस अलामोस में ही संवर्धित यूरेनियम-235 की एक पहली खेप तैयार की गई, जो केवल एक बम के लिए ही पर्याप्त हो सकती थी। अमेरिकी वैज्ञानिकों को लगा कि वे यदि मात्र यूरेनियम के उपयोग तक ही सीमित रहे, तो बात केवल एक बम से आगे नहीं बढ़ेगी। अतः उन्होंने प्लूटोनियम के उपयोग का भी निर्णय लिया। यूरेनियम से भिन्न प्लूटोनियम को परमाणु रिएक्टर में भी बनाया जा सकता है। समस्या यह थी उससे बने बम का विस्फोट करना टेढ़ी खीर थी। प्लूटोनियम के प्रसंग में इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उसके दो परमाणुओं को किस गति से आपस में टकराया जाता है; वे अपने लक्ष्य तक पहुंचने से पहले ही विखंडित हो जाते हैं।

जर्मन सपना भंग हुआः 1942 में जर्मनी के वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग अपने लघु परमाणु रिएक्टर में काफ़ी मात्रा में न्यूट्रोन पैदा करने में सफल हो गए थे, हालांकि बहुत कम परमाणुओं के साथ। उन्हें यह देखना था कि रिएक्टर में परमाणु विखंडन की एक ऐसी श्रृखला बने कि यूरेनियम वाले परमाणु का एक नाभिक टूटने पर 2,  2 नाभिक टूटने पर 4, 4 नाभिक टूटने पर 8 … और इसी प्रकार 80 बार ऐसा ही होने पर विस्फोट से इतनी ऊर्जा मुक्त हो कि कोई शहर ध्वस्त हो जाए। इसके बाद का चरण भी न केवल बहुत दुष्कर होता, बहुत ख़तरनाक भी होता। हाइज़ेनबेर्ग के प्रयोग के समय एक ऐसी ही दुर्घटना हो गई, हालांकि उनकी टीम बाल-बाल बच गई। इस दु्र्घटना ने जर्मन परमाणु बम का सपना भंग कर दिया। जर्मनी के लाइपज़िग शहर में हुई इस दुर्घटना की ख़बरें और अफ़वाहें जब अमेरिका पहुंचीं, तो अमेरिकी वैज्ञानिकों को लगा कि जर्मन तो बम बनाने के शायद उससे कहीं अधिक निकट पहुंच गए थे, जितना निकट वे खुद हैं। उस समय आकाश में न तो जासूसी उपग्रह होते थे और न जर्मनी में अमेरिका के ऐसे कोई जासूस, जो वस्तुस्थिति बता सकते। तब भी,  ओपनहाइमर और उनके वैज्ञानिकों तथा इंजीनियरों ने एक ऐसा रिएक्टर बना लिया, जो ठीक-ठाक काम कर रहा था। अमेरिकी तब तक यह भी जान गए थे कि बम के लायक प्लूटोनियम कैसे बन सकता है। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि प्लूटोनियम बम का विस्फोट कैसे करना चाहिये। 

प्लूटोनियम बना पहेलीः ओपनहाइमर निराश होने लगे। उन्हें प्लूटोनियम के उपयोग का कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। 'मैनहटन प्रॉजेक्ट' से विदा लेने की सोचने लगे थे। इसी उधेड़बुन में जब वे उलझे हुए थे, तभी उन्हें याद आया कि युद्ध छिड़ने से पहले जब वे 'ब्लैकहोल्स' के बारे में जानकारी जुटा रहे थे, तब पाया था कि कोई तारा अपने गुरुत्वाकर्षण बल के कारण जब अपने ही भीतर ढह जाता है, तो वह एक सुपरनोवा (महाचमक) के रूप में विस्फोटित हो कर ब्लैकहोल भी बन सकता है। यानी, भारी दबाव के द्वारा किसी चीज़ का अंतःस्फोट (इंप्लोज़न) भी हो सकता है। अतः ज़रूरत है बम के अंदर प्लूटोनियम का एक 'क्रिटिकल मास'  (क्रांतिक मात्रा) जुटा कर भारी दबाव के बीच उसका अंतःस्फोट करने की। यही वह कुंजी थी, जो ओपनहाइमर की टीम ढूंढ रही थी। अंतःस्फोट के लिए ज़रूरत थी बम के भीतर प्लूटोनियम के एक गोले पर TNT  (ट्राइनाइट्रोटॉल्युओल) नाम के रासायनिक विस्पोटक का आवरण चढ़ा कर सब कुछ एक ही क्षण में एक साथ सुलगा देने (इगनाइट कर देने) की।

3 अरब डॉलर का बजटः अब ज़रूरत थी तेज़ी से काम करने की। अमेरिकी परमाणु बम के इस अभियान से डेढ़ लाख लोग जुड़ चुके थे। 3 अरब डॉलर ख़र्च का बजट बना था। अन्य युद्ध परियोजनाओं के विशेषज्ञ भी लोस अलामोस बुलाए गए। उनकी सहायता से नई गणनाएं की गयीं। जर्मनी से कोई ख़बर नहीं मिल रही थी। इसलिए अमेरिकी वैज्ञानिक घबराने लगे कि जर्मन कहीं उनसे पहले अपना बम न बनालें। कोई नहीं जानता था कि जर्मन क्या कर रहे हैं? कहां तक पहुंचे हैं? वास्तविकता यह थी कि लाइपज़िग में हुई दुर्घटना के बाद वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग को बर्लिन बुलाया गया। उनसे पूछा गया कि बम बनाने में अभी कितना और समय लगेगा। वे मान रहे थे कि अभी कई वर्ष लग जायेंगे। इसे सुनते ही उन्हें फटकार लगते हुए उनसे कहा गया। उनकी योजनाएं धन और समय की बर्बादी हैं। जर्मन नाज़ियों ने परमाणु बम बनाने के सपने से 1942 में ही विदा लेली। किंतु अमेरिकियों को इसकी रत्ती भर भी भनक नहीं मिली। हिटलर के जय-जयकारी V2 कहलाने वाला एक ऐसा रॉकेट बनाने में जुट गए, जिसके द्वारा वे अपने शत्रुओं से बदला (फ़र्गेल्टुंग) लेते। हाइज़ेनबेर्ग भौतिक शास्त्र पर व्याख्यान देने के लिए स्विट्ज़रलैंड चले गए।

हाइज़ेनबेर्ग की हत्या की योजनाः अमेरिकी गुप्तचर सेवा CIA  दूसरे विश्व युद्ध के समय तक नहीं बनी थी। उसकी पूर्वगामी जासूसी सेवा अमेरिकी सेना के अधीन थी। एमनोबेर्ग नाम का उसका एक जासूस धाराप्रवाह जर्मन बोलता था। उससे कहा गया कि वह पता लगाए कि हाइज़ेनबेर्ग क्या अब भी जर्मन परमाणु बम बनाने में लगे हैं। यदि हाँ, तो वह उनकी हत्या करदे। एमनोबेर्ग को हाइज़ेनबेर्ग की वैज्ञानिक ख्याति से कोई मतलब नहीं था। उनकी हत्या करने के इरादे से वह स्विट्ज़रलैंड मे हाइज़ेनबेर्ग से मिला। हाइज़ेनबेर्ग को लगा कि हिटलर ने उनका पीछा करने के लिए किसी को भेजा है। दूसरी ओर अमेरिकी जासूस एमनोबेर्ग को ऐसा आभास हुआ कि हाइज़ेनबेर्ग के हाथ अभी कुछ भी नहीं लगा है, इसलिए उन पर गोली चलाने की कोई ज़रूरत नहीं है।

जर्मनी का हाल बेहालः 1945 की वसंत ऋतु आने तक जर्मनी का हाल बेहाल हो चुका था। बर्लिन पर खूब बमबारी हुई थी। सोवियत रूस की सेना बर्लिन की ड्योढ़ी पर खड़ी थी। हिटलर किसी चूहे की तरह अपने बंकर में छिप गया था। हाइज़ेनबेर्ग दक्षिणी जर्मनी में परमाणु ऊर्जा के शांतिपू्र्ण नागरिक उपयोग के एक रिएक्टर पर काम कर रहे थे। लेकिन उसका निर्माण पूरा नहीं कर पाए। अमेरिका के सहयोगी मित्र राष्ट्रों की सेना ने उन्हें, 3 मई 1945 को,  उनके कई अन्य वैज्ञनिक साथियों के साथ गिरफ्तार कर युद्धबंदी बना लिया। हिटलर तीन ही दिन पहले, 30 अप्रैल 1945 को अपने बंकर में आत्महत्या कर चुका था। वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग जैसा एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक दूसरे देशों के लिए भी बड़े काम काम का हो सकता था। इसलिए उन्हें तथा कई अन्य जर्मन वैज्ञानिकों को गिरफ्तार कर ब्रिटेन ले जाया गया। वहां उन्हें पहरे में रख कर खूब पूछताछ की गई। मित्र राष्ट्रों को तब जा कर पता चला कि जर्मन तो परमाणु बम से वर्षों दूर थे! अमेरिकी विश्वास नहीं कर पा रहे थे कि 1942 की गर्मियों में वे जहां पहंच चुके थे, जर्मन 1945 के वसंत में भी वहां तक नहीं पहुंच पाए थे।

प्लूटोनियम बम का परीक्षणः रॉबर्ट ओपनहाइमर अपने लक्ष्य पर तब तक लगभग पहुंच चुके थे। जुलाई 1945 तक वे एक यूरेनियम बम और दो प्लूटोनियम बमों के लिए आवश्यक पर्याप्त सामग्री जुटा चुके थे। केवल इस बारे में सुनिश्चित नहीं थे कि प्लूटोनियम बम वाकई काम करेंगे भी या नहीं। वे उनमें से एक के परीक्षण-विस्फोट द्वारा आश्वस्त होना चाहते थे। परीक्षण के लिए चुने गए बम को 'गैजेट' नाम दिया गया। वह स्लेटी रंग का एक भारी-भरकम गोला था। 64 किलो यूरेनियम से भरा था। विस्फोटकों, विस्फोटक कैप्सूलों और केबलों से घिरा था। तय हुआ कि 16 जुलाई 1945 के दिन लोस अलामोस के पास ही उसका परीक्षण होगा। विमान से गिराने-जैसी परिस्थितियों के अनुकरण के विचार से 'गैजेट' को 30मीटर ऊंचे एक इस्पाती टॉवर पर रखा गया। घड़ी जब सुबह 5 बज कर 29 मिनट और 45 सेकंड दिखा रही थी, तभी उगते सूर्य जैसी चमक हुई और एक धमाका भी। मानव सभ्यता के इतिहास के पहले परमाणु बम का परीक्षण सफल रहा। विस्फोट वाली जगह पर 3मीटर गहरा और 330 मीटर व्यास का एक बड़ा गड्ढा बन गया। उस क्षण को याद करते हुए ओपनहाइमर ने एक बार कहाः 'कुछ लोग हंस रहे थे, कुछ रो रहे थे, पर अधिकतर मौन थे। हम जानते थे कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं रहेगी।'

'मैं अब मृत्यु बन गया':  विस्फोट से पैदा हुई हवा की प्रतिघात तरंगें 260 किलोमीटर दूर तक महसूस की गयीं। उससे पैदा हुई प्रचंड गर्मी सूर्य की बाहरी सतह पर के तापमान से भी पांच गुनी अधिक थी। धुंए और धूल के गुबार का मशरूम-नुमा एक ऐसा बादल उठा, जो 12 किलोमीटर की ऊंचाई तक गया। बम की विध्वंसक शक्ति 120 किलो TNT के बराबर थी। ओपनहाइमर जानते थे कि यह सब किस तरह के विनाश का संकेत है।1965 के एक इंटरव्यू में उस क्षण की अपनी अनुभूतियों के संदर्भ में उन्हें भगवत गीता में श्री कृष्ण का कहा वह श्लोक याद आया, जिसका अर्थ है, 'मैं अब मृत्यु बन गया, जगत संहारक।' हिटलर की आत्महत्या के बाद जर्मनी ने तो 8 मई 1945 को बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया,  पर उसके सबसे बड़े सहयोगी जापान ने आत्मसमर्पण नहीं किया। इसी को बहाना बना कर लोस आलामोस वाले परीक्षण के तीन ही सप्ताह बाद, 6 अगस्त 1945 के दिन, हिरोशिमा पर यूरेनियम वाला पहला परमाणु बम गिरवा कर अमेरिका के नए राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन ने जता दिया कि वे जापान का कैसा विध्वंस चाहते हैं।

हिरोशिमा पर गिरा पहला बमः सुबह आठ बज कर 16 मिनट पर ज़मीन से 600 मीटर ऊपर बम फूटा और 43 सेकंड के भीतर शहर के केंद्रीय हिस्से का 80 प्रतिशत नेस्तनाबूद हो गया। 10 लाख सेल्शियस तापमान वाला आग का एक ऐसा गोला तेज़ी से फैला, जिसने 10 किलोमीटर के दायरे की हर चीज को राख कर दिया। शहर के 76,000 घरों में से 70,000 तहस-नहस या क्षतिग्रस्त हो गए। 70,000 से 80,000 लोग तुरंत मर गए। जो लोग नगरकेंद्र में थे उनके शरीर तो भाप बन बन कर उड़ गए। जैसे यह सब पर्याप्त न रहा हो, तीन ही दिन बाद, 9 अगस्त को 11 बज कर दो मिनट पर नागासाकी पर दूसरा परमाणु बम गिराया गया। यूरेनियम वाले बम से भी कहीं अधिक विनाशकारी प्लूटोनियम वाले इस बम ने एक किलोमीटर के दायरे में 80 प्रतिशत मकानों को भस्म कर दिया। अनुमान है कि वहां भी 70,000 से 80,000 हज़ार लोग मरे। दोनों बमों का औचित्य सिद्ध करने के लिए तर्क यह दिया गया कि उनके बिना जापान आत्मसमर्पण में टालमटोल जारी रखता। जापान ने 2 सितंबर 1945 को आत्मसमर्पण किया। इसी के साथ द्वितीय विश्व युद्ध का पूर्णतः अंत हुआ।

गर्व नहीं, पश्चातापः रॉबर्ट ओपनहाइमर और वेर्ना हाइज़ेनबेर्ग, दोनों को इस बात पर गर्व के बदले पश्चाताप ही रहा कि उनका नाम परमाणु बम बनाने की होड़ से सदा जुड़ा रहेगा। हाइज़ेनबेर्ग ब्रिटेन में युद्धबंदी से रिहाई मिलने के बाद जर्मनी लौट गए। एक बार फिर अकादमिक गतिविधियों में जुट गए, परमाणु अस्त्रों का विरोध और परमाणु शक्ति के शांतिपू्र्ण उपयोग की पैरवी करने लगे। रॉबर्ट ओपनहाइमर भी परमाणु अस्त्रों के विरोधी बन गए और एक अंतरराष्ट्रीय परमाणु अस्त्र नियंत्रण व्यवस्था की मांग करने लगे। अमेरिका द्वारा हाइड्रोजन बम बनाने के वे इतने प्रबल विरोधी बन गए कि उन पर सोवियत संघ के लिए जासूसी करने के झूठे आरोप तक लगाए जाने लगे। अमेरिकी गुप्तचर सेवाएं उन पर नज़र रखने लगीं। वेर्नर हाइज़ेनबेर्ग ने 1 फ़रवरी 1976 को जर्मनी के म्यूनिक शहर में और रॉबर्ट ओपनहाइमर ने 18 फ़रवरी 1967 को अमेरिका के प्रिंस्टन शहर में अंतिम सांस ली।
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