चुप फिल्म समीक्षा: फिल्म क्रिटिक्स को स्टार देने वाला किलर
एक फिल्मकार वर्षों की मेहनत कर फिल्म तैयार करता है जिसमें सैकड़ों लोगों की मेहनत लगती है। चंद मिनटों में उसके काम का मूल्यांकन हो जाता है। सोशल मीडिया पर तो सभी क्रिटिक हैं, लेकिन 'अधिकृत फिल्म क्रिटिक' की राय को भी कुछ लोग तवज्जो देते हैं। अपने रिव्यू को स्पाइसी बनाने के चक्कर में कई बार क्रिटिक्स हद पार कर जाते हैं। जो लोग फिल्म से जुड़े होते हैं उनमें से कुछ को ये तीखी बातें चुभती भी हैं।
महान फिल्मकार गुरुदत्त ने 1959 में 'कागज के फूल' नामक फिल्म बनाई थी। जिसे दर्शकों के साथ-साथ क्रिटिक्स ने भी नकार दिया था। 'बोरिंग' और बिना कहानी की फिल्म बता कर कागज के फूल की निंदा की गई थी। इन आलोचनाओं से गुरुदत्त इतने आहत हुए कि अवसाद से घिर गए। कुछ महीनों बाद उनकी मृत्यु हो गई। कागज के फूल के मेकर को कागज पर कलम घिसने वालों ने चुप करा दिया। क्या क्रिटिक्स को कातिल मान लिया जाए? बाद में कागज के फूल को क्लासिक कहा गया, लेकिन ये जानने के लिए गुरुदत्त मौजूद नहीं थे।
गुरुदत्त के इस संदर्भ से जोड़ आर बाल्की ने 'चुप' नामक फिल्म बनाई है। फिल्म ये नहीं कहती कि क्रिटिक्स को आलोचना नहीं करना चाहिए। एक दृश्य में अमिताभ बच्चन कहते हैं कि आलोचनाओं की हमें आवश्यकता है। 'चुप' के जरिये ये कहने की कोशिश की गई है कि क्रिटिक्स को अपना रिव्यू लिखते समय दर्शकों को अच्छा-बुरा समझाते हुए उसे जागरुक बनाना है। फिल्म देखने के बाद वह विचारवान और समझदार बने।
इस विचार को आर बाल्की, राजा सेन और ऋषि वीरमानी ने एक सीरियल किलर के एंगल से जोड़ कर कहानी लिखी है। मुंबई में अचानक फिल्म क्रिटिक्स की हत्या होने लगती है जिससे दहशत फैलने लगती है। यह हत्यारा अच्छी फिल्मों को बुरा और बुरी फिल्म को अच्छा बताने वाले क्रिटिक्स की हत्या कर उनके माथे पर दो स्टार या तीन स्टार जैसी रेटिंग भी देता है।
इस सीरियल किलर को पकड़ने की जिम्मेदारी अरविंद माथुर (सनी देओल) हेड ऑफ क्राइम ब्रांच मुबई को सौंपी जाती है जो इस काम में क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट ज़ेनोबिया (पूजा भट्ट) की मदद लेता है। दूसरी ओर नीला मेनन (श्रेया धनवंतरी) एक वेबसाइट पर एंटरटेनमेंट रिपोर्टर है और फिल्म क्रिटिक बनना उसकी ख्वाहिश है। डैनी (दुलकर सलमान) की दुकान से वह अक्सर फूल खरीदती है और दोनों की मुलाकात प्यार में बदल जाती है।
'चुप' में क्रिटिक्स और आर्टिस्ट वाला मुद्दा तो अच्छे से उठाया गया है, लेकिन इस मुद्दे को वे लोग गहराई से समझ सकते हैं जो फिल्म इंडस्ट्री या पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े होते हैं। यह क्रिटिक्स को सोचने पर मजबूर करती है कि उनके लिखे शब्द फिल्मकार के शरीर और आत्मा पर घाव कर सकते हैं। लेकिन जो साइकोलॉजिकल क्राइम थ्रिलर ड्रामा है वो बहुत प्रभावशाली नहीं है।
एक क्रिटिक अपनी रिव्यू में लिखता है कि फिल्म में 'लू ब्रेक' बहुत है तो उसे टॉयलेट में मार दिया जाता है। दूसरा लिखता है कि फिल्म सेकंड हाफ में ट्रैक बदल लेती है तो उसे रेलवे ट्रैक पर मार दिया जाता है। तीसरा लिखता है कि फिल्म में दिल सही जगह है, लेकिन उसके दूसरे अंग गलत जगहों पर है तो उसकी हत्या कर दिल को छोड़ सारे अंगों को यहां-वहां फैला दिया जाता है।
इन नृशंस हत्याओं से फिल्मकार ने माहौल तो बना दिया, लेकिन उसे पकड़ने के लिए पुलिस जिस तरह अपना जाल बिछाती है उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। फिल्म क्रिटिक्स से पुलिस कहती है कि आप कुछ दिनों तक रिव्यू मत लिखिए। फिर एक क्रिटिक से कह कर अच्छी फिल्म का खराब रिव्यू लिखवाया जाता है ताकि इस क्रिटिक की हत्या करने के लिए किलर आए।
ये बातें फिल्म के मिजाज से मेल नहीं खाती। इसी तरह नीला और डैनी की लवस्टोरी खास असर नहीं छोड़ती। एक हत्या क्रिकेट मैदान पर होती है जिसके चारों ओर बिल्डिंग्स है, आखिर कैसे कोई देख नहीं पाता, ये सवाल भी उठता है।
कमियों के बावजूद फिल्म ज्यादातर समय तक बांध कर रखती है तो इसका श्रेय अनूठे विषय, आकस्मिक घटनाक्रम और किरदारों के बीच की लुभावनी बातचीत को जाता है। खासतौर पर कुछ सीक्वेंस मजेदार और मनोरंजक हैं जो माहौल को हल्का करते हैं।
आर बाल्की का निर्देशन उम्दा हैं। उन्होंने अपनी स्टारकास्ट से बेहतरीन काम लिया है। फिल्म में उन्होंने अपने पत्ते धीरे-धीरे खोले हैं। शुरुआत में उन्होंने कातिल को छिपा कर रखा है, धीरे-धीरे उसे सामने लाए और फिर पुलिस की गिरफ्त में वो आता है। थ्रिलर के नाम पर गैर जरूरी हड़बड़ाहट को उन्होंने फिल्म से दूर रखा है। गुरुदत्त वाले प्रसंग को फिल्म से जोड़ना 'चुप' का सबसे बड़ा प्लस पाइंट रहा है। इससे बात वजनदार हो गई है।
सनी देओल टाइपकास्ट होते जा रहे थे और यहां पर उन्हें कुछ अलग कर दिखाने का अवसर मिला। हीरोगिरी छोड़ एक सामान्य पुलिस ऑफिसर के रोल में सनी को देखना सुखद लगा और कुछ दृश्यों में उन्होंने अपने अभिनय से छाप छोड़ी। हालांकि अंतिम मिनटों में निर्देशक के ऊपर सनी देओल की छवि भारी पड़ी जब वे 'बास्टर्ड' चिल्लाते हैं।
दुलकर सलमान को देख लगता ही नहीं कि ये बंदा एक्टिंग कर रहा है। बहुत ही कूल तरीके से उन्होंने अपने किरदार को निभाया और कहीं भी वे आउट ऑफ सिंक नहीं लगे। श्रेया धनवंतरी ने दुलकर का साथ बढ़िया तरीके से निभाया है। पूजा भट्ट ठीक-ठाक रहीं। नीला की मां के रोल में सारान्या पोनवानन्न ने हंसाया है।
बैकग्राउंड म्यूजिक में गुरुदत्त की फिल्मों के गानों का और फिल्म प्रोजेक्टर की आवाज का जो इस्तेमाल किया गया है वो शानदार है। विशाल सिन्हा की सिनेमाटोग्राफी उम्दा है और कुछ शॉट्स उन्होंने गुरुदत्त की स्टाइल में फिल्माए हैं जिनमें लाइट्स और शेड्स का इस्तेमाल हैं।
चुप में कमियां हैं, लेकिन फिल्म का अनूठा विषय और गुरुदत्त वाला एंगल का आकर्षण कमियों पर भारी पड़ता है।
निर्माता : राकेश झुनझुनवाला, जयंतीलाल गढ़ा, अनिल नायडू, गौरी शिंदे
निर्देशक : आर बाल्की
संगीत : अमित त्रिवेदी, स्नेहा खानवलकर, एसडी बर्मन
कलाकार : सनी देओेल, दुलकर सलमान, श्रेया धनवंतरी, पूजा भट्ट