बिहार में चुनाव बा...बाहुबली नेताओं की धमक बा।
बिहार विधानसभा चुनाव में ताल ठोंक रहे बाहुबली नेताओं पर ‘वेबदुनिया’ की खास सीरिज ‘बिहार के बाहुबली’ में आज बात उस बाहुबली नेता की जो दिल्ली की तिहाड़ जेल में होने के चलते खुद तो चुनावी मैदान में नहीं लेकिन उसकी मर्जी के बगैर सिवान में आज भी पत्ता नहीं डोलता है। आज भी सिवान में लोग उसके नाम का खौफ खाते है। जी बात हो रही हैं सिवान के शंहशाह शहाबुद्दीन की। जिसके नाम का डंका आज भी बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश तक बजता है।
तीन दशक से अधिक लंबे समय तक सिवान में अपनी सामानांतर सरकार चलाने वाला शहाबुद्दीन का उदय भी बिहार के अन्य बाहुबलियों की तरह 1990 के विधानसभा चुनाव से होता है। जेल में बंद रहकर अपनी सियासी पारी की शुरुआत करने वाला शहाबुद्दीन 1990 में पहली बार निर्दलीय विधायक चुना जाता है।
पहली बार का विधायक बनने वाला शहाबुद्दीन रातों-रात पहली बार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का करीबी बन जाता है और वह लालू सेना(पार्टी) का सदस्य बन जाता है। दो बार का विधायक और चार बार का सांसद चुना जा चुका शहाबुद्दीन के चुनाव लड़ने पर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। शहाबुद्दीन लालू यादव का कितना करीबी रह चुका है कि एक बार शहाबुद्दीन के नाराज होने पर खुल लालू उसको मनाने पहुंचे थे।
बिहार में जंगलराज का ब्रांड एम्बेसडर- दो दशक तक अगर बिहार में की पहचान देश ही नहीं विदेश में एक ऐसे राज्य के रूप में होती थी जहां कानून का राज न होकर जंगलराज कहा जाता था तो उसका बड़ा कारण अपराध की दुनिया का बेताज बदशाह शहाबुद्दीन ही था। दूसरे शब्दों में कहे कि शहाबुद्दीन बिहार में जंगलराज का ब्रांड एम्बेडर था तो गलत नहीं होगा।
हत्या,अपहरण, लूट, रंगदारी और अवैध हथियार रखने के तीन दर्जन से अधिक मामलों में पुलिस की फाइलों में A श्रेणी का अपराधी (ऐसा अपराधी जिसको सुधारा नहीं जा सके) शहाबुद्दीन अपने छात्र जीवन में अपराध की दुनिया की ओर कदम बढ़ा दिए थे। छात्र राजनीति में शहाबुद्दीन का टकराव कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से हुआ और वह देखते ही देखते उसने वहां अपना साम्राज्य कायम कर लिया।
1990 में खादी का चोला पहनने के बाद शहाबुद्दीन ने अपने विरोधियों को एक-एक कर निशाना बनाना शुरु करता है और 1993 से 2001 के बीच सीवान में भाकपा माले के 18 कार्यकर्ताओं की हत्या हो जाती है। इनमें जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर और श्यामनारायण जैसे नेता भी शामिल थे।
शहाबुद्दीन एक ऐसा नाम है जिसने राजनीति और अपराध की दुनिया की सीढ़ियां एक साथच चढ़ी। पुलिस की फाइलों में 1986 में शहाबुद्दीन के खिलाफ पहला केस हुसैनगंज थाने में दर्ज होता है और वह 1990 में निर्दलीय विधायक बन जाता है।
शहाबुद्दीन के राजनीति में आने की कहानी मुंबईया फिल्मों की पटकथा जैसी ही है। कहा जाता है कि अपने उपर पहला केस दर्ज होने के बाद शहाबुद्दीन अपने इलाके के विधायक त्रिभुवन नारायण सिंह के पास मदद मांगने जाता है लेकिन विधायक जी किसी अपराधी की मदद करने से साफ इंकार कर देते है। इसके बाद जेल की सलाखों के पीछे पहुंचने वाला शहाबुद्दीन जेल में रहकर चुनाव लड़ता है और माननीय विधायक जी बना जाता है।
1990 और 1995 में विधायक और 1996 से 2004 तक लगातार चार बार सांसद चुने जाने वाला शहाबुद्दीन के सितारे 2004 में हुए तेजाब कांड़ के बाद बदल जाते है।
2004 का चर्चित तेजाब कांड- सत्तारूढ़ पार्टी के अपराधी सांसद शहाबुद्दीन का खौफ पूरे सीवान में था, कहा जाता है कि सीवान में रहना है तो शहाबुद्दीन को टैरर टैक्स देना है। हर कोई शहाबुद्दीन के नाम से खौफ खाता था। व्यापरियों को धंधा करने के लिए रंगदारी देनी पड़ती थी। 2004 में प्रतापपुर शहर के व्यापारी चंद्रकेश्वर प्रसाद उर्फ चंदाबाबू और उनके बेटे शहाबुद्दीन के गुर्गो को रंगदारी देने से साफ इंकार कर देते है।
पहली बार अपने साम्राज्य को मिली इस चुनौती से जेल में बंद शहाबुद्दीन बौखला जाता है और जेल से निकलकर चंदाबाबू के दो जवान बेटों गिरीश राज और सतीश राज का अपहरण कर प्रतापपुर में तेजाब से नहालकर बेरहमी से मौत के घाट उतार देते है। इसके दस साल बाद अगस्त 2014 में इस घटना के गवाह और चंदाबाबू के तीसरे बेटे राजीव रौशन की भी गोलियों से भूनकर हत्या कर दी जाती है। इस चर्चित तेजाब कांड में ही आज शहाबुद्दीन तिहाड़ जेल में उम्रकैद की सजा काट रहा है।
पुलिस से सीधी भिड़ंत– सीवान में अपनी सामांनतर सरकार चलाने वाला शहाबुद्दीन को पुलिस का खौफ नाम मात्र का भी नहीं था। पुलिस भी उस पर सीधे हाथ डालने से बचती थी। साल 2001 में जब पुलिस ने शहाबुद्दीन पर कार्रवाई करने की हिमाकत की तो पुलिस और उसके समर्थकों में सीधे भिड़ंत हो गई। दोनों तरफ से हुई गोलीबारी में आठ लोग मारे गए जिसमें दो पुलिस कर्मी भी थे। शहाबुद्दीन की सेना (सथियों) ने पुलिस को खाली हाथ लौटने पर मजबूर कर दिया। इस घटना की धमक पूरे देश में सुनाई दी और बिहार में डेढ़ दशक से राज करने वाले लालू यादव की पार्टी की सत्ता से विदाई की पटकथा लिखना भी शुरु हो गई।