चंदन कुमार जजवाड़े, बीबीसी संवाददाता
केंद्र सरकार ने मंगलवार को संसद के विशेष सत्र के दौरान महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा में पेश कर दिया है। सोमवार को कैबिनेट ने इस विधेयक को मंज़ूरी दे दी थी। इसके साथ ही लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण का मुद्दा अचानक चर्चा में आ गया है।
विधेयक के प्रावधानों के मुताबिक़ लोकसभा या राज्यों के विधानसभा में मौजूदा एससी-एसटी आरक्षण में भी 33 फ़ीसदी सीटों की हिस्सेदारी महिलाओं की होगी।
मौजूदा समय में लोकसभा में 82 महिला सांसद हैं। यह क़ानून उन सांसदों या विधायकों पर लागू होगा, जिन्हें सीधे जनता वोट देकर चुनती है। यह आरक्षण संसद के ऊपरी सदन यानी राज्य सभा या विधान परिषदों पर लागू नहीं होगा।
साथ ही लोकसभा या विधानसभा सीटों पर आरक्षण भी रोटेशन के आधार पर होगा और हर परिसीमन के बाद महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें बदली जा सकेंगी।
महिला आरक्षण विधेयक बीते 27 साल से पास होने का इंतज़ार कर रहा है। भारत के कई राजनीतिक दल संसद और विधानसभा में महिला आरक्षण का विरोध करते रहे हैं।
राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव खुलकर इस तरह के आरक्षण का विरोध किया था। जबकि जनता दल के दिवंगत सांसद शरद यादव ने भी महिला आरक्षण को लेकर विवादास्पद टिप्पणी तक कर दी थी।
इस मामले में बीजेपी के नेता भी पीछे नहीं रहे हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय के दो पुराने ट्वीट शेयर किए हैं, जिसमें अमित मालवीय महिला आरक्षण का विरोध कर रहे हैं।
वहीं उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री और गोरखपुर से सांसद रहे योगी आदित्यनाथ ने भी साल 2010 में महिलाओं को आरक्षण देने से पहले कई स्तर पर चर्चा करने पर जोर दिया था।
मौजूदा मोदी सरकार के पास लोकसभा में बड़ा बहुमत है और कुछ मामलों में उसे राज्य सभा में भी एनडीए से बाहर के दलों का समर्थन मिला है, जिसकी बदौलत मोदी सरकार राज्य सभा से भी कई बिल पास कराने में सफल रही है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी बीते कुछ साल में कई बार महिला आरक्षण विधेयक को पास कराने की मांग की है। 2019 चुनावों से पहले राहुल गांधी ने वादा किया था कि अगर उनकी सरकार बनी तो वो सबसे पहले महिला आरक्षण बिल को पास करेंगे।
इस तरह से संख्या के लिहाज से मोदी सरकार को किसी भी सदन में महिला आरक्षण विधेयक को पास कराने में समस्या नहीं दिखती है। लेकिन यह मामला कई राजनीतिक दलों और नेताओं को परेशान कर सकता है।
ऐसे दलों में विपक्ष के इंडिया गठबंधन के साझेदार दल आरजेडी और एसपी भी हैं जो महिला आरक्षण का विरोध करते रहे हैं। इससे यह सवाल भी उठता है कि क्या यह मुद्दा इंडिया गठबंधन में मदभेद खड़ा कर सकता है?
राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं, “हो सकता है सरकार इसी नीयत से यह विधेयक लेकर आ रही हो। इस समय अचानक इतने साल चुप्पी रखने के बाद एकदम यह विधेयक लाने के पीछे हो सकता है सरकार की ये नीयत हो। लेकिन मुझे यक़ीन है कि आरजेडी और सपा वगैरह इसे एक बड़े दायरे में देखेंगे और इसे स्वीकार करेंगे। यही समय की मांग भी है।”
योगेंद्र यादव का कहना है कि सरकार जो विधेयक लेकर आई है वह पुराने विधेयक से अलग है, इसलिए इसे दोनों की सदनों यानी लोक सभा और राज्य सभा से पास कराना होगा, इसके अलावा आधे राज्यों की विधानसभा से पास होने के बाद ही यह क़ानून बन पाएगा।
साल 2010 में यूपीए सरकार के कार्यकाल में यह विधेयक राज्य सभा से पारित हो गया, लेकिन उस वक़्त यह लोकसभा से पारित नहीं हो पाया था।
यूपीए की सरकार में सहयोगी लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव इसके समर्थन में नहीं थे।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी के मुताबिक़ उस वक़्त सोनिया गांधी महिला आरक्षण विधेयक की हिमायती थीं, लेकिन वो यूपीए के सहयोगी दलों को नाराज़ कर सरकार को कमज़ोर करना नहीं चाहती थीं, इसलिए उस वक़्त इस विधेयक पर ज़ोर नहीं लगाया गया।
नीरजा चौधरी कहती हैं, “जो स्थिति साल 2010 में थी, जब मुलायम सिंह यादव और लालू यादव इसके ख़िलाफ़ बोले थे, जिसकी वजह से यह बिल पास नहीं हो पाया। मुझे नहीं लगता है कि अब अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव महिलाओं को नाराज़ करेंगे। अब तक गंगा में बहुत पानी बह गया है।”
हालांकि आरजेडी अब भी अपने रुख़ पर कायम है। आरजेडी के सांसद मनोज झा का कहना है, “अगर सरकार की नीयत साफ़ है, जब पहली बार ही बिल लेकर आ रहे हैं तो इसमें किसी के अधिकार को लेकर कोई कमी न रहे। हम इसके अंदर अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए कोटे के अंदर कोटा चाहते हैं। "
वरिष्ठ पत्रकार अविनाश प्रधान के मुताबिक़ महिला आरक्षण को लेकर जिस पार्टी का जो पुराना रुख़ है वो उसपर कायम रहेंगे, इसमें इंडिया गठबंधन के सारे दल एक नहीं होंगे।
उनका मानना है, “आरजेडी जैसे दल इस आरक्षण के अंदर आरक्षण की मांग करते रहेगी और कांग्रेस भी दबे पांव इसकी मांग करेगी क्योंकि वो भी अब पिछड़े वर्गों की राजनीति की तरफ जा रही है, लेकिन इसका 'इंडिया' पर कोई असर नहीं पड़ेगा।”
श्रेय किसको?
महिला आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर पत्रकारों के सवाल के जवाब में सोनिया गांधी ने कहा कि यह तो अपना है। यानी कांग्रेस इस विधेयक को अपना बता रही है, जबकि बीजेपी और अन्य कई दल भी इसका श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं।
साल 1989 में राजीव गांधी ने ग्राम पंचायत, नगर पालिका और नगर निगम में महिलाओं के लिए आरक्षण की बात की थी, हालांकि वो इसके लिए क़ानून नहीं बनवा पाए थे। बाद में साल 1993 में नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान इसे लेकर क़ानून बना था।
नीरजा चौधरी का मानना है कि ज़्यादातर दल इस विधेयक का समर्थन करेंगे, इसलिए प्रधानमंत्री और बीजेपी इसका बहुत फ़ायदा नहीं ले पाएंगे, क्योंकि स्थानीय निकायों से इसकी शुरुआत राजीव गांधी ने की थी, फिर वो नरसिम्हा राव के कार्यकाल में पारित हुआ था।
उसके बाद देवेगौड़ा सरकार के दौरान साल 1996 में संसद में महिला आरक्षण विधेयक को पेश करने की कोशिश की गई थी। नीरजा चौधरी के मुताबिक़ कई महिला कार्यकर्ताओं ने कई साल से इसे लेकर अपनी मांग जारी रखी थी।
महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने 12 सितंबर 1996 को संसद में पेश करने की कोशिश की थी। उस वक़्त देवेगौड़ा केंद्र में संयुक्त मोर्चा की एक गठबंधन सरकार चला रहे थे, जिसे कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही थी।
उस सरकार में मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद दो बड़े स्तंभ थे और ये दोनों ही नेता महिला आरक्षण के ख़िलाफ़ थे। इसलिए महिला आरक्षण का यह मामला आगे नहीं बढ़ पाया था।
उसके बाद भी इस विधेयक को पास कराने के कई प्रयास हुए लेकिन इसमें किसी सरकार को सफलता नहीं मिली। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इसके लिए कम से कम तीन बार कोशिश की लेकिन भारी विरोध की वजह से वो इसमें सफल नहीं हो सके।
नीरजा चौधरी कहती हैं, “फिर भी जो क़ानून पारित कराता है उसे फ़ायदा तो होता ही है। लेकिन जहां तक मुझे समझ में आ रहा है यह तस्वीर साल 2029 में बदलेगी, क्योंकि यह साल 2026-27 में परिसीमन के बाद ही लागू हो पाएगा।”
उनके मुताबिक़ यह एक सांकेतिक चीज़ हो जाएगी, अगर अभी 181 महिला सांसद चुनकर संसद में आ जातीं तो इसका ज़बरदस्त असर होता, लेकिन फ़िलहाल यह पास होकर रह जाएगा और लागू बाद में होगा।
'बीजेपी की बढ़ेगी समस्या'
महिला आरक्षण को लागू करने के लिए संभवतः साल 2026-27 में सीटों का परिसीमन हो सकता है। ऐसे में जो मौजूदा पुरुष सांसद हैं, उनकी अपनी चिंता भी होगी कि उनकी परंपरागत सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी तो उनकी राजनीति का क्या होगा?
भारत में राजनीति में पुरुषों की ज़्यादा सक्रियता भी एक बड़ा मुद्दा है। हर लोकसभा या विधानसभा सीट पर कई दलों के नेता सक्रिय होते हैं ताकि इलाक़े में चुनावी लिहाज़ से उनकी पहचान बनी रहे और वक़्त आने पर चुनावों में उन्हें मदद मिल सके।
अविनाश प्रधान कहते हैं, “इस मामले में ज़्यादा समस्या बीजेपी के साथ होगी, क्योंकि दूसरे दल वाले तो अपनी पत्नी या घर की किसी महिला को टिकट दिलवा देंगे और उन्हें इससे परहेज़ भी नहीं है। जबकि बीजेपी के नेता ऐसा करेंगे तो उनपर परिवारवाद का आरोप लगेगा, जिसका बीजेपी विरोध करती रही है।”
अविनाश कहते हैं, “इसे समझने के लिए उत्तर प्रदेश की बलिया लोकसभा सीट को ही लीजिए, जहां से मौजूदा समय में वीरेंद्र सिंह मस्त सांसद हैं। उस सीट से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर भी दावेदार हैं। अगर यह सीट रिज़र्व हो जाए तो बीजेपी इन दोनों में से किसी के परिवार की महिला को टिकट नहीं दे सकती, इससे महिला कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का आरोप भी लगेगा।”
भारत के कई इलाक़े में नगरपालिका, नगर निगम या ग्राम पंचायत के चुनावों में महिलाओं के लिए सीट आरक्षित होने के बाद स्थानीय नेताओं के परिवार की महिलाओं को चुनाव लड़ते देखा जाता है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, “जो मौजूदा सांसद हैं उनकी चिंता भी होगी कि अगर उनकी सीट रिज़र्व हो जाती है तो क्या होगा और इसी वजह से पहले इस विधेयक का विरोध किया गया था। मैं नहीं मानती कि सांसदों का रवैया महिलाओं के ख़िलाफ़ था। संसद ने महिलाओं के लिए कई सारे विधेयक पारित किए हैं।”
नीरजा चौधरी के मुताबिक़, “सांसदों को डर था कि जो एक तिहाई सीट रिज़र्व होगी, उसमें किसकी सीट पर गाज गिरेगी, बारामती पर या मैनपुरी पर, इटावा या मधेपुरा पर। यह किसी को नहीं पता और विरोध का असली कारण यही था। मुझे लगता है कि बाक़ी दलों और नेताओं ने इसके लिए पिछड़े वर्ग के नेताओं का इस्तेमाल किया, लेकिन आज इसका विरोध करना ज़्यादा मुश्किल होगा।”
फ़िलहाल भले ही ऐसा दिख रहा हो कि सरकार आसानी से इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों में पास करा लेगी। लेकिन इसकी एक परीक्षा अलग-अलग राज्यों की विधानसभा में भी होनी है।
यही नहीं परंपरागत तौर पर किसी विधानसभा या लोकसभा सीट पर राजनीति करने वाले नेताओं के सामने भी असमंजस के हालात बने रहेंगे। अगर उनकी सीट महिलाओं के कोटे में चली गई तो उनके सामने क्या राजनीतिक विकल्प होगा।