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Written By BBC Hindi
Last Updated : मंगलवार, 31 अक्टूबर 2023 (20:02 IST)

पाकिस्तान चाहकर भी इजराइल-हमास संघर्ष पर खुलकर क्यों नहीं बोल पा रहा है?

पाकिस्तान चाहकर भी इजराइल-हमास संघर्ष पर खुलकर क्यों नहीं बोल पा रहा है? - Why is Pakistan not able to speak openly on Israel-Hamas conflict even after wanting to?
-शुमाइला जाफ़री (बीबीसी न्यूज़, इस्लामाबाद)
 
ग़ाज़ा में जैसे-जैसे मानवीय संकट गहरा रहा है, वैसे-वैसे पाकिस्तान की सरकार पर फ़िलीस्तीनियों के पक्ष और इजराइल के विरोध में खुलकर आने का दबाव बढ़ता जा रहा है। हाल ही में पाकिस्तान में हज़ारों लोगों ने इजराइल विरोधी रैलियों में हिस्सा लिया, मगर पाकिस्तानी सरकार कूटनीतिक संतुलन साधते हुए चल रही है।
 
पाकिस्तान ने युद्ध को ख़त्म करने की अपील की है। विश्लेषकों का मानना है कि यह अपील बड़े ही सधे हुए शब्दों में की गई। ऐसा इसलिए ताकि एक ओर पाकिस्तान अपने लोगों को बता सके कि वह भावनात्मक रूप से फ़िलीस्तीनियों के साथ है, वहीं दूसरी ओर पश्चिमी देशों से जुड़े अपने आर्थिक और विदेश नीति सम्बंधित हितों को भी सुरक्षित रख सके।
 
पाकिस्तान ऐतिहासिक तौर पर फ़िलीस्तीनियों के पक्ष में रहा है। उसने अभी तक इजराइल के साथ राजनयिक रिश्ते स्थापित नहीं किए हैं।
 
पाकिस्तान 'अंतरराष्ट्रीय मानकों के तहत' एक स्वतंत्र फ़िलीस्तीनी राष्ट्र की स्थापना का समर्थन करता है जिसकी राजधानी यरूशलम में हो। वह कई दशकों से इसकी वकालत करता आ रहा है।
 
लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अगर इजराइल ने ग़ाज़ा पर हमले जारी रखे तो पाकिस्तान के सामने जल्द ही 'आगे कुआं तो पीछे खाई' वाली स्थिति पैदा हो सकती है।
 
पाकिस्तान का रुख़
 
जब 7 अक्टूबर को ग़ाज़ा से इजराइल पर हमास के हमलों की ख़बर आई तो पाकिस्तान ने 'इंसानों की जान जाने' और 'हालात बिगड़ने की आशंका' पर चिंता जताते हुए अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत दो देशों की स्थापना वाले समाधान की वकालत की।
 
पाकिस्तान ने अपने आधिकारिक रुख़ को दोहराया कि फ़िलीस्तीनी देश की स्थापना 1967 से पहले की सीमाओं के आधार पर की जाए।
 
इस्लामाबाद में इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्ट्रैटिजिक स्टडीज़ में रिसर्च फ़ेलो अरहमा सिद्दीक़ा कहती हैं कि ऐसा पहली बार हुआ है जब पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने अपनी प्रेस रिलीज़ में फ़िलीस्तीन के साथ 'कब्ज़ाया गया' शब्द इस्तेमाल नहीं किए।
 
वह कहती हैं कि बयान के लिए शब्दों का चयन बहुत ही सावधानी से किया गया था और इसका कारण है- सऊदी अरब और इजराइल के बीच संबंध बहाली की प्रक्रिया।
 
अरहमा सिद्दीक़ा कहती हैं, 'जब संघर्ष शुरुआती दौर में था तो पाकिस्तान को नहीं पता था कि सऊदी अरब और इजराइल के बीच चल रही मैत्री-प्रक्रिया का क्या होगा। ऐसे में पाकिस्तान नहीं चाहता था कि कुछ ऐसा करे जिससे सऊदी अरब नाराज़ हो।'
 
लेकिन बाद में पाकिस्तान मुखर होकर ग़ाज़ा में इजराइल की कार्रवाई की आलोचना करने लगा।
 
कुछ दिन बाद पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय का बयान आया, जिसमें 'आक्रामकता तुरंत रोकने' के लिए कहा गया और इजराइल द्वारा ग़ाज़ा के नागरिकों पर 'अंधाधुंध और बेहिसाब' ताक़त के इस्तेमाल की आलोचना की गई थी।
 
संतुलित रहने की 'मजबूरी'
 
फ़िलीस्तीनियों के लिए मानवीय सहायता के रास्ते में आ रही अड़चनों को ओआईसी जैसे कूटनीतिक माध्यमों से दूर करने का दबाव बनाने में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है।
 
उसने ग़ाज़ा में मदद भी भेजी है। इस्लामाबाद में फ़िलीस्तीनी राजदूत ने हाल ही में पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर से मुलाक़ात की थी, जिन्होंने फ़िलीस्तीनियों के प्रति समर्थन जताया था।
 
मगर 19 अक्टूबर को जब विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मुमताज़ ज़ाहरा बलोच से पूछा गया कि क्या पाकिस्तान फ़िलीस्तीनियों की रक्षा के लिए सेना भेजने का इरादा रखता है, तो उन्होंने कहा कि ऐसी कोई योजना नहीं है।
 
रसूल बख़्श रईस की राय
 
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार रसूल बख़्श रईस मानते हैं कि इजराइल-हमास संघर्ष के बीच पाकिस्तान का जवाब संयमित और सोचा-समझा है और आगे भी ऐसा ही रहने वाला है।
 
रईस कहते हैं, 'भले ही कार्यवाहक सरकार हो, सेना हो या फिर मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां, सभी ने फ़िलीस्तीनियों के प्रति एकजुटता का भाव दिखाया, लेकिन ऐसे लोकलुभावन बयान देने से परहेज़ किया जिनसे इजराइली नागरिकों के ख़िलाफ़ ताक़त या हिंसा का इस्तेमाल को बढ़ावा देने का संकेत जाए।'
 
रसूल बख़्श रईस की राय है कि पाकिस्तान इस बात को अच्छी तरह समझता है कि दुनिया इस मसले पर कितनी ज़्यादा बंटी हुई है और कौन सा देश किस ओर खड़ा है।
 
वह कहते हैं, 'पाकिस्तान का फ़िलीस्तीनियों के साथ ऐतिहासिक और भावनात्मक नाता है लेकिन उसके रणनीतिक और आर्थिक हित अमेरिका, यूरोपीय संघ और अन्य देशों से जुड़े हुए हैं। पाकिस्तान न सिर्फ़ इन देशों को निर्यात करता है बल्कि इनसे उसे आर्थिक सहायता भी मिलती है। ऐसे में पाकिस्तान आर्थिक संकट के बीच इनमें से किसी को नाराज़ करना नहीं चाहेगा।'
 
सऊदी अरब पर नज़र
 
इसके अलावा, पाकिस्तान ने सऊदी अरब को भी ध्यान में रखा। अरहमा सिद्दीक़ा कहती हैं कि पाकिस्तान ने इस युद्ध को लेकर सऊदी अरब के रुख़ को भांपते हुए अपना रवैया तय किया।
 
वह कहती हैं, 'सऊदी अरब एक पुराना दोस्त और ऐसा सहयोगी है, जिसने कई बार पाकिस्तान को आर्थिक संकट से बचाया है।'
 
हाल ही में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने पाकिस्तान में खरबों डॉलर का निवेश करने की बात कही है।
 
अरहमा को लगता है कि भले ही सऊदी-इजराइल समझौता सिरे न चढ़ पाया हो, लेकिन सऊदी अरब अभी भी इजराइल के ख़िलाफ़ ज़्यादा आक्रामक नहीं है। ऐसे में पाकिस्तान भी उसी के नक्श-ए-क़दम पर चलना चाहेगा।
 
हालांकि, अरहमा यह भी मानती हैं कि अगर इजराइल ने आक्रामक रवैया बनाए रखा और फ़िलीस्तीन में मौतों का सिलसिला जारी रहा, तो हालात बदल सकते हैं।
 
जनता का ग़ुस्सा
 
पाकिस्तान के लोग फ़िलीस्तीनियों का खुलकर, ज़ोरदार समर्थन कर रहे हैं।
 
फ़िलीस्तीनियों के समर्थन और इजराइल के विरोध में प्रदर्शन करने के मामले में जमात-ए-इस्लामी (जेआई) और मौलाना फ़ज़ल-उर-रहमान की जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम जैसी अति दक्षिणपंथी धार्मिक पार्टियां सबसे आगे हैं।
 
पिछले वीकेंड पर इस्लामाबाद और क्वेटा में कई बड़ी रैलियां हुईं, जिन्हें इन पार्टियों का समर्थन हासिल था।
 
जेआई के हज़ारों समर्थक इस्लामाबाद में जुटे। उन्होंने इजराइल की आलोचना की मगर उनका ग़ुस्सा अमेरिका के प्रति ज़्यादा था, जिन्हें वे इजराइल का साथ देने के लिए जिम्मेदार मानते हैं।
 
जमात-ए-इस्लामी के प्रदर्शनकारी अमेरिकी दूतावास की ओर जाना चाहते थे लेकिन उन्हें रोक दिया। झड़पें हुईं और पुलिस को आंसू गैस के गोले छोड़ने पड़े।
 
बाद में प्रदर्शनकारी दूसरी जगह इकट्ठा हुए। महिलाएं और बच्चे भी इस रैली में शामिल हुए थे और वे अमेरिका विरोधी नारे लगा रहे थे।
 
जमात-ए-इस्लामी के अमीर, सिराज उल हक़ ने अपने समर्थकों से कहा कि ग़ाज़ा में दवाइयां और चीज़ें भेजना काफ़ी नहीं है, बल्कि असल काम इजराइल को रोकना है। उन्होंने मुसलमान शासकों से अमेरिका के बजाय अल्लाह पर निर्भर होने को कहा।
 
इस बीच, अमेरिकी दूतावास ने इस्लामाबाद में मौजूद अपने नागरिकों के लिए ट्रैवल अडवाइज़री जारी करते हुए कहा है कि 'अनावश्यक यात्रा न करें और बड़े जमावड़ों से दूर रहें।'
 
मौलाना फ़ज़ल-उर-रहमान ने भी क्वेटा में वैसी ही बातें दोहराईं। उन्होंने पाकिस्तान सरकार की प्रतिक्रिया की आलोचना की। उन्होंने कहा कि अमेरिका अब सुपर पॉवर नहीं है और पाकिस्तानी सरकार को अमेरिकी गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर उसके ख़िलाफ उठ खड़े होना चाहिए।
 
हमास के नेता नाजी ज़हीर ने भी इस सभा को संबोधित किया। कुछ दिन पहले मौलाना फ़ज़ल-उर-रहमान ने हमास के पूर्व प्रमुख ख़ालिद मशाल से फ़ोन पर बात करके समर्थन जताया था।
 
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार रसूल बख़्श रईस कहते हैं कि धार्मिक दलों और मुख्यधारा की पार्टियों, जैसे कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग एन, पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ का रुख़ अलग है।
 
वह कहते हैं, 'इजराइल के ख़िलाफ़ रहना और अमेरिका विरोधी कट्टरपंथी रुख़ धार्मिक दलों के काम आता है। इससे वे मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं। जबकि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां जानती हैं कि वे भविष्य में सत्ता में आ सकती हैं। ऐसे में वे इस विषय पर सावधान रहती हैं और वे हिंसा के लिए उकसाने या अमेरिका को कोसने से बचती हैं। वे जानती हैं कि इसका नतीजा क्या होगा।'
 
इजराइल से रिश्तों का भविष्य
 
विश्लेषकों को लगता है कि मध्य पूर्व में पैदा हुए संकट ने पाकिस्तान और इजराइल के सम्बंध सामान्य होने के विचार को फ़िलहाल के लिए टाल दिया है।
 
हाल के सालों में इजराइल को देश के तौर पर मान्यता देने को लेकर चर्चा आम हो गई है।
 
2005 में पाकिस्तान और इजराइल के विदेश मंत्रियों के बीच पहली बार सार्वजनिक तौर पर बैठक हुई थी। 2020 में अब्राहम समझौते के बाद चर्चा में तेज़ी आई थी। इस समझौते के तहत इजराइल के रिश्ते अपने पड़ोसी अरब देशों से सामान्य होने की शुरुआत हुई थी।
 
'विलसन सेंटर' में दक्षिण एशिया के निदेशक माइकल कुगेलमन ने 'फ़ॉरेन पॉलिसी' नाम की पत्रिका के लिए लिखा है कि युद्ध के कारण जहां इजराइल के साथ रिश्ते सामान्य करने की प्रक्रिया रुक गई है, वहीं इससे इस्लामाबाद पर पड़ रहा इजराइल को मान्यता देने का दबाव कम हो गया है।
 
वह लिखते हैं कि अगर क़रीबी सहयोगी सऊदी अरब ने रिश्ते सामान्य कर लिए होते तो पाकिस्तान पर दबाव बढ़ सकता था। लेकिन अब, हाल-फ़िलहाल में ऐसा होना संभव नहीं दिखता।
 
पाकिस्तानी सीनेट की डिफ़ेंस कमेटी के चेयरमैन, सीनेटर मुशाहिद हुसैन ने एक अमेरिकी मीडिया संस्थान से कहा था कि 'ग़ाज़ा संघर्ष का पहला सबक़ यह है कि इस बारे में चर्चा अब शांत हो गई है।'
 
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार रसूल बख़्श रईस को लगता है कि 'पाकिस्तान के लिए इजराइल के साथ रिश्ते सामान्य करने के लिए यह सही दौर था भी नहीं।'
 
वहीं, अरहमा सिद्दीक़ा की राय है कि अगर बमबारी जारी रही, तो पाकिस्तान को फ़िलीस्तीन-इजराइल युद्ध पर अपने रुख़ पर नए सिरे से विचार करना होगा।
 
वह कहती हैं कि उसे कश्मीर के मसले को भी ध्यान में रखना होगा। अगर पाकिस्तान ग़ाज़ा में इजराइल के अत्याचारों का खुलकर विरोध नहीं करेगा तो वह दुनिया से कैसे उम्मीद रखेगा कि वे कश्मीरियों को लेकर उसके नज़रिये का समर्थन करें?
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