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Last Updated : मंगलवार, 18 सितम्बर 2018 (12:22 IST)

स्मार्टफ़ोन की लत से छुटकारा दिलाता एक फ़ोन

स्मार्टफ़ोन की लत से छुटकारा दिलाता एक फ़ोन | punkt mobile
- पीटर रूबिंस्टेन (बीबीसी फ्यूचर)
 
बात 2008 की है, जब नॉर्वे के उद्यमी पेट्टर नेबी और उनकी सौतेली बेटी को ये एहसास हुआ कि उनके फ़ोन, उनके रिश्ते में दरार डाल रहे हैं। वो खाने के वक़्त अपने सेल फ़ोन पर नज़र गड़ाए रहते थे। बिस्तर पर जाने से पहले और घर में टहलते हुए भी फ़ोन पर ही व्यस्त रहते थे।
 
 
ये एक ऐसा नशा था, जिस के जाल से वो निकल नहीं पा रहे थे। ये ऐसी लत थी जैसे चॉकलेट खाने की आदत। आख़िरकार नेबी को पता चल गया कि अपनी सौतेली बेटी से दोबारा रिश्ता मज़बूत करने के लिए उन्हें फ़ोन को बीच से हटाना होगा। वो कहते हैं कि, 'मैं बहुत स्वादिष्ट चॉकलेट को फ्रिज में कैसे रख सकता हूं। अगर वो फ्रिज से बाहर होगी, तो यक़ीनन मैं उसे खाऊंगा।' 
 
 
कई साल की लत के बाद आख़िरकार नेबी ने इस से छुटकारा पाने का तरीक़ा खोज ही निकाला। उन्होंने अपने स्मार्टफ़ोन को बदलकर एक नया मोबाइल लेने का फ़ैसला किया। लेकिन, पहले उनके पास जो ब्लैकबेरी फ़ोन था, उसकी जगह नेबी ने जो फ़ोन बनाया वो रिश्तों के लिए सेहतमंद था। फ़ोन के बजाय रिश्तों पर ज़ोर देने के इरादे से ही नेबी ने नई कंपनी बनाई पुंक्ट।
 
 
कैसा है यह फोन
आज पुंक्ट दुनिया की उन स्टार्ट अप कंपनियों में से एक है, जो तकनीक में छोटे-छोटे बदलाव लाकर चिंता और लत से छुटकारा दिलाने का काम कर रही है। ये तकनीक लोगों को स्मार्टफ़ोन की लत से निजात दिलाने की है। लोगों को दो क़दम आगे नहीं, पीछे ले जाने की बात करती है।
 
 
अब ये नए ज़माने के पुराने फ़ोन आप को कॉल करने में मदद करते हैं और कुछ छोटे-मोटे दूसरे काम भी। इन फ़ोन को रखने वाले कहते हैं कि वो नए ज़माने के इन पुराने फ़ोन की वजह से स्मार्टफ़ोन की क़ैद से आज़ाद हो रहे हैं। ये फ़ोन उन्हें उस दौर में ले जा रहे हैं, जब आईफ़ोन को उनकी हथेली से चिपका दिया गया था।
 
 
हालांकि फ़िलहाल जानकार इस बात पर बंटे हुए हैं कि स्मार्टफ़ोन के मुक़ाबले उतारे गए ये बेसिक फ़ोन लोगों के लिए कितने फ़ायदेमंद हैं। और सवाल ये भी है कि क्या फ़ोन हमारे अवचेतन में गहरी जड़ें जमाए बैठी आदतों को बदलने का काम कर सकते हैं? ये हमारे ज्ञान को बढ़ा सकते हैं? लेकिन, इस नए ज़माने के पुराने फ़ोन के समर्थक इन सवालों के जवाब हां में ही देते हैं।
 
 
2015 में जो हॉलियर और काईवेई टैंग ने न्यूयॉर्क में द लाइट फ़ोन नाम से एक मोबाइल ईजाद किया। ये नया फ़ोन पुराने ज़माने के मोटे-भद्दे मोबाइल जैसा ही था। जैसा कि 2001: ए स्पेस ओडिसी में दिखाया गया था।
 
 
इस फोन में कोई बाहरी की नहीं थी। कैमरा नहीं था और स्क्रीन पर कई ऐप भी नहीं था। इसके बजाय द लाइट फोन में एक डायलपैड है। इसके जरिए कॉल की जा सकती है और रिसीव की जा सकती है। इस फोन के स्पीड डायल में केवल नौ नंबर सेव किए जा सकते हैं।
 
 
व्यवहार में कितना फर्क पड़ेगा
द लाइट फोन के मुक़ाबले, नेबी का एमपी-01 फोन ज्यादा पेचीदा है। इसमें थ्रीडी बटन लगे हैं। इसके जरिए फोन कॉल के अलावा टेक्स्ट मैसेज किए जा सकते हैं। इस फोन को ब्लूटूथ से कनेक्ट किया जा सकता है। फोन में अलार्म और कैलेंडर भी है। नीदरलैंड की ट्वेंट यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर गीक लडेन इस फोन को डिज़ाइन 'विद गोल' कहती हैं। गीक के मुताबिक़, नए दौर के ये पुराने जैसे फ़ोन आप को बहुत ज़्यादा नहीं उलझाते, क्योंकि इन से आप ज़्यादा काम ले ही नहीं सकते।
 
 
ट्वेंट यूनिवर्सिटी के ही थॉमस वान रोम्पे मानते हैं कि ये साधारण फोन ही मोबाइल को लेकर मानवीय बर्ताव में बदलाव ला सकते हैं। आईफ़ोन और दूसरे स्मार्टफोन में लगातार मैसेज और नोटिफिकेशन आते रहते हैं। मजबूरन लोगों को उन्हें उठाना पड़ता है। रोम्पे कहते हैं कि, 'आईफोन लगातार आपका ध्यान अपनी तरफ खींचता रहता है।'
 
 
मोबाइल पर निर्भरता का नतीजा ये होता है कि हम लगातार फोन में उलझे रहते हैं। इनके मुक़ाबले लाइट फोन या एमपी-01 नोटिफ़िकेशन दे ही नहीं सकते। बुनियादी काम के सिवा कुछ कर ही नहीं सकते, तो वो आप का ध्यान अपनी तरफ़ नहीं खींचते। ऐसे में ये फ़ोन रखने वाले उन्हें कम ही छुएंगे।
 
 
इसका ये मतलब नहीं कि स्मार्टफोन नहीं होंगे, तो नोटिफिकेशन आने पर हमारे अंदर आने वाला उत्साह कम हो जाएगा। अमेरिका की मिसौरी यूनिवर्सिटी में मार्केटिंग के प्रोफ़ेसर रहे पीटर ब्लॉच कहते हैं कि स्मार्टफ़ोन से क्रिएटिविटी के बहुत काम नहीं हो सकते। पर अगर हम बेसिक फ़ोन जैसे दिखने वाले द लाइट फ़ोन या एमपी-01 की बात करें, तो ये जज़्बाती तौर पर हमारे बहुत मददगार हो सकते हैं।
 
 
प्रोफ़ेसर ब्लोच कहते हैं कि, 'ये फोन आप के लिए बहुत से काम नहीं करेंगे। मगर इनसे अच्छा एहसास होगा।' ब्लोच के मुताबिक़ जब आप ऐसी चीज़ें ख़रीदते हैं तो आप के बर्ताव में बदलाव आता है। नई चीज़ों से हमारा हेल-मेल हमारे ज़हन पर गहरा असर डालता है।
 
 
कितना पसंद किया जा रहा फोन
पीटर ब्लोच ने 1995 में 'जर्नल ऑफ मार्केटिंग' में एक लेख लिखा था। इसमें उन्होंने बताया था कि इंसान का दिमाग़ दो तरीक़े से बर्ताव करता है। जब उसके हाथ कोई नई चीज़ आती है, तो वो उसकी तुलना पहले से मौजूद चीज़ से करता है। फिर जब वो नई चीज़ को इस्तेमाल करता है, तो उसका तजुर्बा ज़हन पर अलग असर डालता है। जैसे कि बहुत से लोग स्पोर्ट्स कार ख़रीदकर अच्छा महसूस करते हैं।
 
चौड़े से सड़क पर चलने लगते हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि एमपी-01 या द लाइट फोन इतने साधारण हैं कि शायद वो लोगों के ज़हन पर अच्छा असर न छोड़ पाएं। वो कहते हैं कि किसी भी नई चीज़ में लुभाने वाली कोई बात तो होनी चाहिए। आप जिस चीज़ से दूर रह सकते हैं और इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, तो बहुत ज़्यादा लोग उसकी तरफ़ नहीं खिंचेंगे।
 
 
जो हॉलियर अपने प्रोडक्ट के खिलाफ इन बातों का स्वागत करते हैं। वो कहते हैं जब द लाइट फोन को वो बेच रहे थे, तो उन्हें बहुत ख़ुशी का एहसास हुआ था। लोग या तो इसे पसंद करते थे या नापसंद। जिसे अच्छा लगता था, वो द लाइट फोन ख़रीद लेता था। इस बंटवारे ने उनके फोन को बेचने में मदद ही की।
 
 
पहले ही साल 11 हज़ार द लाइट फोन 50 देशों में बिके थे। पुंक्ट हर साल 50 हजार से एक लाख एमपी-01 फोन बेच रही है। इन फोन का साधारण दिखना ही इनकी खूबी बन गई है। अलग-अलग आकार में आने वाले ये फोन आंखों को सुकून देने वाले हैं। नेबी कहते हैं कि उनकी कंपनी का मक़सद भी यही था।
 
 
'अगर कोई उत्पाद अच्छा है, उसका डिज़ाइन अच्छा है, तो वो अपने-आप बिकेगा।' ट्वेंट यूनिवर्सिटी के रोम्पे कहते हैं कि लोग ये साधारण फोन ख़रीदना चाहते हैं क्योंकि इसके ज़रिए वो नुमाइश कर सकते हैं कि वो बाक़ियों से अलग हैं। और आज स्मार्टफ़ोन से आज़ाद होने की ज़रूरत बहुत से लोग महसूस कर रहे हैं।
 
 
स्मार्टफोन की जद में लोग
हम सब के अंदर भीड़ से अलहदा दिखने की बुनियादी ख़्वाहिश होती है। लेकिन, अगर आप आस-पास के लोगों से ताल्लुक़ नहीं महसूस करते, तो आप को बुरा भी महसूस होता है। अगर आप सेना या पुलिस में हैं, तो आप के अलग दिखने की ख़्वाहिश को पूरा नहीं किया जा सकता। इस ख़्वाहिश के मुक़ाबले हम ये पाते हैं कि ये साधारण फ़ोन बीच के रास्ते पर चलते हैं। वो स्मार्टफ़ोन से अलग हैं। बुनियादी डिज़ाइन वाले हैं। इसलिए इन्हें रखना आप को अलहदा होने की ख़ुशी देता है। आप की बुनियादी ज़रूरतें भी ये फ़ोन पूरी करते हैं।
 
 
मीडिया के जानकार डगलस रशकॉफ़ कहते हैं कि ये सही दिशा में उठा क़दम है। वो मानते हैं कि लोग ये नहीं कह रहे हैं कि उन्हें कम की ज़रूरत है। असल में वो ये बेसिक सुविधाओं वाले फ़ोन को लेकर ये कह रहे हैं कि बस बहुत है। क्योंकि लोग मैसेज, नोटिफ़िकेशन, एक से एक ऐप से उकता रहे हैं। उनका ध्यान भंग हो रहा है। वो हमेशा फ़ोन से ही जुड़े रहते हैं। वो स्मार्टफ़ोन छोड़कर इन नए ज़माने के पुराने जैसे फ़ोन इसलिए ले रहे हैं कि स्मार्टफ़ोन की क़ैद से आज़ाद हो सकें।
 
 
रशकॉफ़ कहते हैं कि, 'लोग अब ये समझ रहे हैं कि जब आप लगातार स्मार्टफ़ोन की ज़द में रहते हैं, ऐप की दया पर निर्भर होते हैं, तो आप बहुत मूल्यवान चीज़ें, रिश्ते और वक़्त गंवा देते हैं। इसीलिए पुंक्ट और द लाइट फ़ोन उनके लिए वरदान बनकर आए हैं।'
 
 
रशकॉफ़ कहते हैं कि, 'भले ही ये अजीब लगे, लेकिन ये बेसिक फ़ोन लेकर लोग यही संदेश दे रहे हैं कि बस बहुत हुआ। स्मार्टफ़ोन और ऐप से जी भर गया। वैसे मेरे हिसाब से बेहतर ये होता कि लोग अपने स्मार्टफ़ोन में ही तमाम ऐप डिसेबल कर देते।' वैसे रशकॉफ़ के मुताबिक़ सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि आप ये फ़ोन ख़रीदकर ये मान रहे हैं कि आप में अनुशासन नहीं है।
 
 
स्मार्टफोन छोड़ रहे हैं सेलिब्रिटी
आज पश्चिमी देशों के बहुत से सेलिब्रिटी जैसे किम कर्दाशियां, रिहाना, एना विनटूर, डेनियल डे-लेविस और वारेन बफेट ने अपने स्मार्टफोन हटाकर बेसिक मोबाइल फोन लिए हैं। पीटर ब्लोच आशंका जताते हैं कि स्मार्टफोन और ऐप से आज़ाद होकर कहीं लोग और चिंता में न पड़ जाएं। ब्लोच कहते हैं कि, 'मुझे नहीं पता कि हम जिन्न को बोतल में फिर से बंद कर पाएंगे या नहीं।'
 
 
रशकॉफ़ कहते हैं कि आज दुविधा क्रोनोस और कैरोस की है। ये प्राचीन काल के यूनानी कॉन्सेप्ट हैं। क्रोनोस वो वक़्त होता है जिस से समाज चलता है। मिनट, घंटे, दिन, हफ़्ते और साल। वहीं कैरोस इंसानी वक़्त है, हमारा अंदरूनी ख़याल, जो किसी बाहरी चीज़ से प्रभावित नहीं होता। ये हमारी इंटरनल बॉडी क्लॉक है।
 
 
रशकॉफ के मुताबिक़ ये बाहरी, क़ुदरती माहौल के हिसाब से बदल जाती है। दिन और रात के हिसाब से भी बदलती है। लोगों के जज़्बाती हालात का भी इस पर असर पड़ता है। स्मार्टफ़ोन क्रोनोस की नुमाइंदगी करते हैं, जो हमें चौबीसों घंटे चल रही दुनिया के हिसाब से दौड़ाना चाहते हैं।
 
 
स्मार्टफ़ोन की लत से आज़ाद होने मुश्किल है। ये हमारी दिमाग़ी और शारीरिक सेहत पर असर डालते हैं। कई बार बदलाव ऐसे ही आते हैं, छोटे-छोटे क़दमों से। आप बाथरूम जाएं और वहां अपना फ़ोन निकाल लें और फिर ख़ुद पर ही हंसें, तो यक़ीन जानिए कि आप कामयाबी की तरफ़ बढ़ रहे हैं।
 
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