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Written By BBC Hindi
Last Updated : सोमवार, 29 जुलाई 2024 (09:17 IST)

मुज़फ़्फ़रनगर: मुसलमान अपनी पहचान के साथ कर रहे हैं स्वागत, कावड़ियों का क्या है रुख़- ग्राउंट रिपोर्ट

मुज़फ़्फ़रनगर: मुसलमान अपनी पहचान के साथ कर रहे हैं स्वागत, कावड़ियों का क्या है रुख़- ग्राउंट रिपोर्ट - Muslims in Muzaffarnagar are welcoming the Kawadis with their identity
-अभिनव गोयल (बीबीसी संवाददाता, मुज़फ़्फ़रनगर)
 
Kawad Yatra Muzaffarnagar : उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में डॉक्टर मोहम्मद शोएब अंसारी के छोटे से अस्पताल में कावड़ियों की भीड़ लगी है। लगातार चार दिनों से पैदल चल रहे इन कावड़ियों में कुछ की तबीयत ख़राब है। किसी को पीठ दर्द की शिकायत है तो किसी के पैरों में छाले पड़ गए हैं। हरिद्वार से पैदल कावड़ लेकर चल रहे इन कावड़ियों को हरियाणा में अपने-अपने शहर या गांव पहुंचने में अभी लंबा समय लगेगा।
 
कावड़ यात्रा रूट की दुकानों पर मालिकों के नाम लिखवाने के विवाद के बीच इन कावड़ियों को यहां इलाज करवाने से कोई गुरेज़ नहीं है। वो कहते हैं, 'अगर हमारे मन में भेदभाव होता तो हम यहां आते ही नहीं। सब एक हैं। अगर हम हिन्दू मुस्लिम देखेंगे तो हमारा दर्द कौन देखगा। वो दर्द तो डॉक्टर ही देखेगा।'
 
सूर्य कहते हैं, 'भोला किसी से भेदभाव नहीं करता। जो कावड़ लेकर जा रहा है, वो हिंदू-मुसलमान नहीं देखता।'
 
डॉक्टर मोहम्मद शोएब का क्लिनिक मुज़फ़्फ़रनगर में कावड़ रूट पर पड़ता है, जहां से हर रोज़ हज़ारों कावड़िए गुज़र रहे हैं।
 
शोएब कहते हैं , 'काफ़ी भोले आ रहे हैं। नाम से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इंसानियत होनी चाहिए। मैं हिन्दू मुस्लिम नहीं देखता। मैं अच्छे से अच्छा ट्रीटमेंट देता हूं। मेरे अंदर कोई भेदभाव नहीं है। मैं जायज़ काम करता हूं। मेरा नंबर तक भोले लेकर जाते हैं।'
 
कुछ देर क्लिनिक पर समय बिताने के बाद पता चलता है कि बड़ी संख्या में कावड़ यात्री मोहम्मद शोएब अंसारी से दवा लेकर अपनी यात्रा पर आगे बढ़ जाते हैं।
 
हाल ही में मुज़फ़्फ़रनगर प्रशासन ने क़ानून व्यवस्था का हवाला देकर ढाबों, होटलों और खाने-पीने के सामान बेचने वाली दुकानों पर मालिकों और उसमें काम करने वाले कर्मचारियों का नाम लिखवाने का आदेश दिया था।
 
यानी लोगों को अपनी दुकानों पर अपनी मज़हबी पहचान ज़ाहिर करने को कहा गया था।
 
विवाद बढ़ने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट गया और सर्वोच्च अदालत ने यूपी सरकार के इस फ़ैसले पर रोक लगा दी।
 
उत्तरप्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि कावड़ यात्रा के शांतिपूर्ण संचालन के लिए ये फ़ैसला लिया गया था।
 
भाईचारे पर कितना असर?
 
कई लोगों ने आशंका ज़ाहिर की कि नाम लिखवाने को लेकर उपजा ये विवाद कहीं सांप्रदायिक तनाव की शक्ल ना ले ले।
 
ऐसे में हम जानने निकले कि इस पूरे विवाद का मुज़फ़्फ़रनगर के सामाजिक ताने-बाने पर क्या कोई असर पड़ा?
 
मुज़फ़्फ़रनगर का मुस्लिम बहुल बझेड़ी गांव, क़रीब 12 हज़ार की आबादी वाले इस गांव में गिने-चुने ही हिन्दू परिवार हैं। हर साल लाखों कावड़िए इस गांव से होकर गुज़रते हैं।
 
यहां हमारी मुलाक़ात मोहम्मद इक़बाल से हुई, जिनके परिवार ने घर के बाहर कावड़ यात्रा को ध्यान में रखकर एक ठंडे पानी का कूलर लगाया हुआ है।
 
ठंडा पानी पीने के लिए रुके कावड़ यात्री ओमवीर ने कहा, 'हम जानते हैं कि ये घर मुसलमान का है लेकिन हमें कोई दिक़्क़त नहीं है। जो गंगाजल हम घर लेकर जा रहे हैं, ये भी वैसा ही जल है और भेदभाव की क्या बात करनी। ये कावड़ भी तो ये ही लोग बना रहे हैं।'
 
इस मुस्लिम बहुल गांव से गुजरते हुए एक अन्य कावड़िए ने कहा, 'जहां पानी मिल जाता है, वहीं पीने लग जाते हैं हमलोग। इंसान तो सब एक ही हैं।'
 
मुज़फ़्फ़रनगर से शुरू हुए इस 'नाम लिखवाने' के विवाद पर मोहम्मद इक़बाल कहते हैं, 'दुकानों पर मज़हबी पहचान ज़ाहिर करने के प्रशासन के आदेश के बाद ऐसा नहीं है कि हम हम भी कावड़ियों से भेदभाव शुरू कर देंगे।'
 
'थोड़ी देर पहले कावड़ियों ने मेरे घर पर लगे अमरूद के पेड़ से अमरूद खाए। पानी भी पिया। हर साल कावड़िए हमारे यहां आंगन में आकर बैठते हैं, आराम करते हैं। हम लोग गप-शप भी करते हैं। इस बार भी ऐसा ही है।'
 
इसी गांव में एक घर मांगेराम का भी है, जो दशकों से यहां रह रहे हैं। वे कहते हैं, 'मुसलमानों के बीच मेरा अकेला घर है। मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई।'
 
नेमप्लेट विवाद पर मांगेराम कहते हैं कि इससे शहर के हिंदू-मुसलमान पर कोई असर नहीं पड़ा है, कावड़ यात्रा के बाद फिर से सब एक हो जाएंगे।
 
शहर का माहौल कैसा है?
 
मुज़फ़्फ़रनगर शहर के अंदर पेंट की दुकान चलाने वाले मनोज जैन कहते हैं, 'आज कावड़ यात्रा है, मुसलमान सपोर्ट कर रहे हैं। एक दूसरे से व्यापार है हमारा। मैं जो फल ख़रीदता हूं, वो सारा मुस्लिम से ही ख़रीदता हूं और ख़रीदते रहेंगे।'
 
नेमप्लेट विवाद पर मनोज जैन कहते हैं कि ये राजनीतिक बातें हैं, जो यहां नहीं चलेंगी।
 
वे कहते हैं, 'आपको मुज़फ़्फ़रनगर में आने के बाद लगेगा कि ये मुद्दा यहां का है ही नहीं, जो उछाला जा रहा है।'
 
ऐसे ही चाट की दुकान चलाने वाले महेंद्र गोयल कहते हैं कि शहर के माहौल जैसा था वैसा ही बना रहेगा।
 
वे कहते हैं, 'मेरी चाट की दुकान पर 60 प्रतिशत ग्राहक मुसलमान हैं, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।'
 
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद क्या है हाल?
 
भाईचारे की इन तमाम बातों के इतर ये भी सच है कि दुकानों पर नाम लिखवाने के सरकारी आदेश पर सुप्रीम कोर्ट की रोक के बावजूद अब भी कई होटलों, दुकानों और फलों के ठेलों पर दुकान के मालिकों के नाम और बाक़ायदा फ़ोन नंबर भी लिखे हुए हैं।
 
कई दुकानदारों ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा कि प्रशासन का उन्हें डर है, इस वजह से उन्होंने नाम वाले बैनर नहीं हटाए।
 
शिव मंदिर के पास किराने की दुकान चला रहे सलमान की दुकान के बाहर सामान ख़रीदने वालों कावड़ियों की अच्छी-ख़ासी भीड़ लगी हुई है।
 
दुकान के सामने सड़क के दूसरी तरफ़ कावड़ियों का एक ग्रुप अपने लिए पूरियां तल रहा है। इस ग्रुप में शामिल प्रमोद कुमार के लिए दुकानदारों की मज़हबी पहचान बहुत मायने रखती है।
 
वो कहते हैं, 'हमने रुड़की में खाना नहीं खाया क्योंकि वहां ज़्यादातर मुसलमान दुकानदार हैं। पहले भी हमने देखा कि वे उल्टे तवे पर रोटी बना रहे थे, तो हमने रोटी खाना छोड़ दिया। दुकानों पर नाम लिखवाने का जो फ़ैसला है, हम उससे बहुत ख़ुश हैं। इससे हमें पहचान करने में आसानी होती है।'
 
प्रमोद कुमार कहते हैं कि हम भेदभाव तो नहीं करते लेकिन खाने-पीने की चीज़ों को ख़रीदने से पहले बहुत ध्यान रखते हैं।
 
वो कहते हैं, 'हम पैकिंग वाला सामान तो उनसे (मुसलमानों) ले लेते हैं लेकिन खुला सामान जैसे चाय, पकौड़ा जैसी चीज़ें बिल्कुल नहीं लेते। चाहे हमें भूखा या प्यासा ही क्यों ना रहना पड़े।'
 
कावड़ रूट पर चाय की दुकान और फलों के ठेले लगाने वाले कई मुसलमानों का यही कहना है कि इस पूरे प्रकरण से उनके काम पर बहुत असर पड़ा है और बहुत सारे कावड़ियों ने उनसे सामान लेना बंद कर दिया है।
 
पहले भी रहती थी सख़्ती
 
आर्थिक रूप से समृद्ध मुज़फ़्फ़रनगर को 'शकर का कटोरा' भी कहते हैं। उत्तरप्रदेश में चीनी उत्पादन के कुल उत्पादन का क़रीब 10 प्रतिशत यहीं से आता है। शहर में 3 दशकों से भी लंबे वक़्त से पत्रकारिता कर रहे स्थानीय पत्रकार अरविंद भारद्वाज कहते हैं कि करीब 35 लाख की आबादी वाले मुज़फ़्फ़रनगर में 35 से 40 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है।
 
क़रीब एक दशक पहले दंगों की मार झेल चुके मुज़फ़्फ़रनगर में हाल के कई सालों से ज़िंदगी सामान्य चल रही है। इस दौरान हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदायों के बीच तनाव नहीं देखा गया।
 
अरविंद भारद्वाज कहते हैं, 'पहले मुज़फ़्फ़रनगर को मोहब्बत नगर कहा जाता था। 2013 का दंगा हुआ था, दोनों समुदायों के बीच में दूरी आ गई थी।'
 
'पिछले क़रीब 5  सालों से जब से योगी सरकार आई है, कावड़ यात्रा के दौरान प्रशासन हल्की-फुल्की व्यवस्था में मुस्लिम होटल वालों को मांसाहारी खाना बंद करने के लिए कह देता था।'
 
हालांकि उनका यह भी कहना है कि स्थानीय लोगों पर इसका असर नहीं है।
 
इन तमाम विवादों के बीच सवाल ये भी है कि खाने पीने की दुकानों पर मालिक और उसमें काम करने वाले कर्मचारियों की धार्मिक पहचान ज़ाहिर करने का ये विवाद क्या कावड़ यात्रा के साथ समाप्त हो जाएगा।
 
इसके जवाब में अरविंद भारद्वाज कहते हैं, 'फ़िलहाल लोग कावड़ यात्रियों की सेवा में लगे हैं। नाम लिखवाने के आदेश पर कावड़ यात्रा के बाद प्रशासन का क्या निर्णय रहेगा। क्या ये और ज़्यादा सख़्ती से लागू होगा। क्या ये ज़िले से निकलकर पूरे प्रदेश में लागू होगा? इसका पता बाद में ही चल पाएगा।'
 
(मुजफ़्फ़रनगर से स्थानीय पत्रकार अमित सैनी के सहयोग से)
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