• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. loksabha election 2024 : access of personal data to political parties
Written By BBC Hindi
Last Updated : मंगलवार, 28 मई 2024 (16:37 IST)

लोकसभा चुनाव 2024 : आपका निजी डेटा कैसे पहुंच जाता है राजनीतिक पार्टियों के पास

लोकसभा चुनाव 2024 : आपका निजी डेटा कैसे पहुंच जाता है राजनीतिक पार्टियों के पास - loksabha election 2024 : access of personal data to political parties
मेरिल सेबेस्टियन, बीबीसी न्यूज, दिल्ली
भारत की एक बड़ी आबादी के पास स्मार्टफोन में कई तरह के ऐप होते हैं। टैक्सी बुक करने के लिए, खाने के लिए या डेटिंग के लिए अलग-अलग ऐप मौजूद हैं। दुनियाभर के अरबों लोगों के पास ऐसे ऐप होते हैं, जिससे कोई नुक़सान नहीं होता है और ये रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करते हैं। लेकिन भारत में ये ऐप संभावित रूप से आपकी हर एक बात राजनेताओं को बता देते हैं। आप ऐसा चाहें या नहीं चाहें राजनेता जो भी जानना चाहते हैं, आपके बारे में जान लेते हैं।
 
चुनावी रणनीतिकार रुत्विक जोशी इस चुनाव में कम से कम एक दर्ज़न सांसदों को फिर से चुनाव जीताने के लिए काम कर रहे हैं। रुत्विक कहते हैं कि किसी व्यक्ति का धर्म, मातृभाषा, वो सोशल मीडिया पर कैसे अपने दोस्तों को मैसेज भेजता है, ये सब बातें किसी नेता के लिए वो डेटा हैं, जिन्हें वो जानना चाहते हैं।
 
रुत्विक का दावा है कि जिस तरह से भारत में स्मार्टफ़ोन की लोकप्रियता बढ़ी है और निजी कंपनियों को डेटा बेचने की अनुमति से जुड़े नियमों में ढील मिली है, इससे ज़्यादातार राजनीतिक दलों ने हर काम के लिए डेटा जुटा लिया है। यहां तक कि आज आप क्या खा रहे हैं? इसका ब्यौरा भी उनके पास मिल जाएगा।
 
नेताओं को ये जानकारी क्यों चाहिए?
आख़िर राजनीतिक दलों को ये सब क्यों चाहिए? रुत्विक कहते हैं कि आसान शब्दों में कहें तो इन जानकारियों से वोट का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। उनका दावा है कि ये अनुमान आमतौर पर कभी गलत साबित नहीं होते हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आपको इस बात की चिंता क्यों करनी चाहिए?
 
माइक्रोटारगेटिंग- मतलब कि निजी डेटा का इस्तेमाल विज्ञापन दिखाने और जानकारी देने के लिए किया जाए। ये माइक्रोटारगेटिंग चुनाव के मद्देनज़र कोई नई बात नहीं है। लेकिन पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की साल 2016 में हुई जीत के बाद ये सुर्खियों में आया।
 
उस वक्त, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी कैंब्रिज़ एनालिटिका पर ऐसे आरोप लगे थे कि उसने फ़ेसबुक के बेचे हुए डेटा का इस्तेमाल लोगों की प्रोफ़ाइल तैयार करने और उन्हें ट्रंप के समर्थन वाले कंटेंट भेजने के लिए किया था। हालांकि, फर्म ने इन आरोपों को ख़ारिज़ कर दिया था लेकिन अपने सीईओ अलेक्ज़ेंडर निक्स को निलंबित कर दिया था।
 
साल 2022 में मेटा ने कैंब्रिज एनालिटिका से जुड़े डेटा उल्लंघन के एक मुक़दमे को निपटाने के लिए 725 मिलियन डॉलर का भुगतान करने की सहमति जताई थी।
 
इससे लोगों के मन में ये सवाल उठने लगा कि क्या उन्होंने जो विज्ञापन देखा है, उसकी वजह से उनके वोट पर कोई असर पड़ा है। दुनियाभर के देश लोकतंत्र पर पड़ने वाले इसके असर को लेकर इतने परेशान दिखे कि उन्होंने तुरंत कार्रवाई शुरू कर दी।
 
भारत में क्या हुआ था
भारत में कैंब्रिज एनालिटिका से जुड़ी एक कंपनी ने कहा था कि भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी कांग्रेस दोनों ही पार्टियां उनके क्लाइंट हैं। हालांकि, दोनों ने ही इस बात से इनकार किया था।
 
भारत के उस वक़्त के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी भारतीय नागरिकों के डेटा के ग़लत इस्तेमाल करने पर कंपनी और फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की चेतावनी दी थी।
 
डेटा और सिक्योरिटी रिसर्चर श्रीनिवास कोडाली कहते हैं कि वोटरों को सूक्ष्म स्तर पर निशाना बनाने (माइक्रो-टारगेटिंग) से रोकने के लिए अब तक कोई बड़े कदम नहीं उठाए गए हैं।
 
वो कहते हैं, 'दूसरे सभी चुनाव आयोगों ने जैसे ब्रिटेन और सिंगापुर में चुनावों के दौरान माइक्रो-टारगेटिंग की भूमिका को समझने की कोशिश की। ऐसे आयोगों ने कुछ निश्चित क़दम उठाए, जो कि आमतौर पर एक चुनाव आयोग को करना ही चाहिए लेकिन हम भारत में ऐसा होते नहीं देखते हैं।'
 
कोडाली कहते हैं, 'भारत में ये समस्या और भी जटिल हो गई है क्योंकि यहां एक ऐसी डेटा सोसाइटी है जिसे सरकार ने बिना सुरक्षा उपाय किए हुए तैयार किया है।'
 
दरअसल, भारत में 65 करोड़ स्मार्टफोन उपयोगकर्ता हैं और इन सभी स्मार्टफोन में ऐसे ऐप्स हैं जो डेटा को थर्ड पार्टी के साथ साझा कर सकते हैं।
 
सरकार भी साझा करती है निजी डेटा
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ स्मार्टफोन की वजह से ही आप निशाना बन रहे हैं। सरकार के पास ख़ुद ही निजी डेटा का एक बड़ा भंडार है और यहां तक कि सरकार भी निजी कंपनियों को व्यक्तिगत जानकारी बेचती रही है।
 
कोडाली कहते हैं, 'सरकार ने नागरिकों का बड़ा डेटाबेस तैयार किया है और उसे प्राइवेट सेक्टर के साथ साझा किया है।'
 
इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक प्रतीक वाघरे कहते हैं कि इससे नागरिकों पर निगरानी का ख़तरा बढ़ा है। साथ ही इस बात पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रह गया है कि कौन सी जानकारी निजी होगी।
 
विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले साल सरकार ने डेटा सुरक्षा क़ानून पारित किया था जो अब तक लागू नहीं हो सका है। कोडाली कहते हैं कि ये नियमों की कमी की दिक्कत है। और इस बड़े पैमाने पर उपलब्ध डेटा का नतीजा क्या है? रुत्विक जोशी के शब्दों में भारत ने दुनिया के सबसे बड़े डेटा माइन के तौर पर चुनावी साल में क़दम रखा है।
 
जोशी कहते हैं कि बात ये है कि कोई व्यक्ति कुछ भी अवैध नहीं कर रहा है। वो इस बात को कुछ ऐसे समझाते हैं, ' मैं ऐप से ये नहीं कह रहा कि मुझे ये आंकड़ा चाहिए कि कितने यूजर ऐप को इस्तेमाल कर रहे हैं, या उन यूजर्स का कॉन्टेक्ट नंबर दे दो। लेकिन मैं ये पूछ सकता हूं कि क्या आपके इलाके में लोग शाकाहारी खाना खाते हैं या मांसाहारी? और ऐप ये डेटा दे देता है क्योंकि यूजर ने पहले ही इसके लिए अनुमति दे दी है।
 
रुत्विक की कंपनी नीति-आई, कई निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं का व्यवहार समझने के लिए डेटा का उपयोग कर रही है। रुत्विक समझाते हैं, 'उदाहरण के लिए, आपके मोबाइल में 10 अलग-अलग भारतीय ऐप है। आपने अपने कॉन्टेक्ट, गैलरी, माइक, स्पीकर, जगह जिसमें लाइव लोकेशन भी शामिल तक ऐप कोई पहुंच दे रखी है।
 
ये वही डेटा है, जिसे पार्टी कार्यकर्ताओं के जरिए इकट्ठा किए गए डेटा के साथ इस्तेमाल किया जाता है। जो ये तय करने में मदद करता है कि उम्मीदवार कौन होना चाहिए, उम्मीदवार की पत्नी को पूजा या आरती के लिए कहां जाना चाहिए, उन्हें किस तरह का भाषण देना चाहिए, यहां तक कि उन्हें क्या पहनना चाहिए।
 
क्या लोगों का मन बदला जा सकता है?
इस स्तर पर निशाना साधकर लोगों का मन बदला जा सकता है? ये अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन जानकार मानते हैं कि बुनियादी स्तर पर ये लोगों की निजता का उल्लंघन है। इन जानकारियों का इस्तेमाल और बढ़ा दिया जाए तो इसका इस्तेमाल लोगों के ख़िलाफ़ भी किया जा सकता है।
 
प्रतीक वाघरे कहते हैं कि ऐसा हो रहा है जो एक समस्या है। वो कहते हैं, 'हमने देखा है कि इस बात में कोई स्पष्ट अंतर नहीं होता है कि किसी सरकारी योजना के लाभार्थी के डेटा को कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है और कैसे उसके डेटा का इस्तेमाल राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर कैंपेन मैसेज के जरिए माइक्रो टारगेट करने के लिए किया जाता है।'
 
कानून, सरकार और सरकारी निकायों को अपने विवेक के आधार पर व्यापक धाराओं से छूट देता है। इनके पास निजी जानकारियों को थर्ड पार्टी के साथ इस्तेमाल और साझा करने की भी शक्ति है।
 
वाघरे इस बात की चिंता जताते हैं कि भविष्य में आने वाली सरकारें इसे एक कदम और आगे ले जा सकती हैं। वो कहते हैं, ये भी हो सकता है: 'आइए देखते हैं कि कौन हमारा समर्थन कर रहा है और केवल उन्हें लाभ दिया जाए।'
 
कोडाली कहते हैं कि डेटा का इस तरह का इस्तेमाल भारत में मिसइंफॉर्मेशन की समस्या को और बढ़ाता है। वो कहते हैं, 'जब आप आर्टिफ़िशिएल इंटेलिजेंस, टारगेटेड एडवर्टिज़मेंट और मतदाताओं की माइक्रो-टारगेटिंग की बात करते हैं तो ये सब 'कंप्युटेशनल प्रोपेगेंडा' के तहत आता है।'
 
वो बताते हैं, 'इस तरह के सवाल 2016 में ट्रंप के चुनाव के वक्त भी उठाए गए थे, जहां उस चुनाव पर विदेशी प्रभाव माना जाता है।'
 
कोडाली का कहना है कि चुनाव प्रचार में डेटा और टेक्नोलॉजी को उसी तरह रेगुलेट करना चाहिए जैसा कि अभी पैसे के इस्तेमाल और विज्ञापन पर खर्च को रेगुलेट किया जाता है। ताकि चुनाव को निष्पक्ष रखा जा सके। वो कहते हैं कि अगर एक या कुछ सियासी दलों या समूहों के पास ऐसी टेक्नोलॉजी तक पहुंच हो तो चुनाव निष्पक्ष नहीं लगेंगे।