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Written By BBC Hindi
Last Updated : सोमवार, 21 अगस्त 2023 (09:28 IST)

रूस की नाकामी भारत के लिए बड़ा मौक़ा, चंद्रयान-3 सफल रहा तो कितनी बड़ी उपलब्धि?

रूस की नाकामी भारत के लिए बड़ा मौक़ा, चंद्रयान-3 सफल रहा तो कितनी बड़ी उपलब्धि? - If India's Chandrayaan-3 is successful then what a big achievement?
-श्रीकांत बक्शी, बीबीसी संवाददाता
 
India's Chandrayaan-3 Mission: चंद्रयान मिशन-3 ने 14 जुलाई को आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा (Sriharikota) से उड़ान भरा था। 40 दिनों की लंबी यात्रा के बाद 23 अगस्त यह चंद्रयान चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने की कोशिश करेगा। इसरो के चंद्रयान-1 के मून इम्पैक्ट प्रोब, चंद्रयान-2 के विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर को भी उसी क्षेत्र में उतरने के लिए भेजा गया था। अब चंद्रयान 3 भी यहीं उतरने की कोशिश करेगा।
 
हालांकि इससे पहले दोनों मौक़ों पर नाकामी हाथ लगी थी। चंद्रयान-1 का मून इम्पैक्ट प्रोब, चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जबकि चंद्रयान-2 के लैंडर से सॉफ्ट लैंडिंग के आख़िरी मिनट में सिग्नल मिलना बंद हो गया था।
 
लेकिन एक बार फिर चंद्रयान-3 के साथ इसरो भारत को चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला पहला देश बनाने की कोशिश कर रहा है।
 
वैसे 11 अगस्त को रूस द्वारा लॉन्च किया गया लूना 25 भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने की तैयारी कर रहा था, जो रविवार को दुर्घटनाग्रस्त हो गया है।
 
लेकिन इसरो को उम्मीद है कि चंद्रयान-3 अपने मिशन में कामयाब होगा।
 
अंतरिक्ष की खोज करने वाले देशों के बीच अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने की एक होड़ रही है। सौर मंडल में चंद्रमा पृथ्वी का सबसे निकटतम खगोलीय पिंड है।
 
चंद्रमा पर पहुंचने को लेकर अमेरिका और रूस में आपसी होड़ रही और कहा जा सकता है कि अमेरिका और रूस के बीच अंतरिक्ष युद्ध दूसरे विश्व युद्ध के बाद शुरू हुआ था।
 
तत्कालीन सोवियत रूस ने 1955 में सोवियत अंतरिक्ष कार्यक्रम शुरू किया था। इसके तीन साल बाद अमेरिका ने 1958 में नेशनल एयरोनॉटिक्स एंड स्पेस एजेंसी यानी नासा की शुरुआत की।
 
14 सितंबर, 1959 को पहला मानव निर्मित यान चंद्रमा पर उतरा। तत्कालीन सोवियत रूस का लूना-2 अंतरिक्ष यान चंद्रमा पर सफलतापूर्वक उतरा।
 
इस प्रकार लूना 2 ने चंद्रमा पर उतरने वाली पहली मानव निर्मित वस्तु के रूप में इतिहास रचा।
 
लूना 2 ने चंद्रमा पर उतरने के बाद, उसकी सतह, विकिरण और चुंबकीय क्षेत्र के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान की।
 
इस सफलता ने चंद्रमा पर और अधिक प्रयोग करने तथा अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने का रास्ता बनाया। नासा द्वारा लॉन्च किए गए अधिकांश अपोलो मिशन, मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन और रूस द्वारा किए गए लूना 24 मिशन चंद्रमा के भूमध्य रेखा के करीब ही उतरे हैं।
 
इसरो के मिशन की ख़ासियत
 
यानी लूना 25 और चंद्रयान से पहले हमेशा इन यानों ने चंद्रमा की भूमध्य रेखा पर उतरने का ही प्रयास किया, क्योंकि चंद्रमा की भूमध्य रेखा के पास उतरना आसान है।
 
चंद्रमा के भूमध्य रेखा के पास, तकनीकी सेंसर और संचालन के लिए आवश्यक अन्य उपकरण सूर्य से सीधी रोशनी प्राप्त करते हैं। यहां दिन के समय भी रोशनी साफ़ दिखाई देती है। इसीलिए अब तक सभी अंतरिक्ष यान चंद्रमा के भूमध्य रेखा के करीब उतरे।
 
पृथ्वी की धुरी 23.5 डिग्री झुकी हुई है। इसके कारण ध्रुवों के पास 6 महीने दिन का प्रकाश और 6 महीने अंधेरा रहता है, लेकिन चंद्रमा की धुरी सूर्य से लगभग समकोण पर है।
 
नासा के अनुसार चंद्रमा की धुरी 88.5 डिग्री लंबवत है। यानी सिर्फ़ डेढ़ डिग्री की वक्रता। इसका मतलब यह है कि भले ही सूर्य की किरणें चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्रों को छूती हों, लेकिन सूर्य की किरणें वहां के गड्ढों की गहराई तक नहीं पहुंच पाती हैं।
 
इस प्रकार, चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र में बने गड्ढे 2 अरब वर्षों से सूर्य की रोशनी के बिना बहुत ठंडी अवस्था में बने हुए हैं। चंद्रमा के वे क्षेत्र जहां सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंच पाता है, स्थायी छाया वाले क्षेत्र कहलाते हैं।
 
ऐसे क्षेत्रों में तापमान शून्य से 230 डिग्री सेल्सियस तक कम हो सकता है। ज़ाहिर है, ऐसी जगहों पर लैंडिंग करना और तकनीकी प्रयोग करना बहुत मुश्किल है।
 
चंद्रमा पर बने कुछ गड्ढे बहुत चौड़े हैं। उनमें से कुछ तो सैकड़ों किलोमीटर व्यास के हैं। इन सभी मुश्किल चुनौतियों के बावजूद, इसरो चंद्रयान-3 के लैंडर को 70वें अक्षांश के पास दक्षिणी ध्रुव के पास सॉफ्ट लैंडिंग कराने की कोशिश कर रहा है।
 
दक्षिणी ध्रुव में ऐसा क्या है?
 
चंद्रमा के भूमध्य रेखा के निकट दिन के तापमान में अंतर सबसे अधिक होता है।
 
यहां रात में तापमान माइनस 120 डिग्री रहता है और दिन में 180 डिग्री तक पहुंच जाता है।
 
लेकिन ध्रुवों पर अरबों वर्षों से सूर्य की रोशनी नहीं पाने वाले कुछ क्षेत्रों में तापमान शून्य से 230 डिग्री तक नीचे जाने का आकलन लगाया जाता रहा है।
 
इसका एक मतलब तो यही है कि यहां की मिट्टी में जमा चीजें लाखों सालों से वैसी ही हैं। इसरो इन चीज़ों की पड़ताल के लिए दक्षिण ध्रुव के पास उतरने की कोशिश कर रहा है। इसरो यहां लैंडर और रोवर्स उतारकर वहां की मिट्टी की जांच करने की कोशिश कर रहा है।
 
दक्षिणी ध्रुव के पास की मिट्टी में जमे हुए बर्फ़ के अणुओं की पड़ताल से कई रहस्यों का पता चल सकता है, सौर परिवार का जन्म, चंद्रमा और पृथ्वी के जन्म का रहस्य, चंद्रमा का निर्माण कैसे हुआ और इसके निर्माण के दौरान क्या स्थितियां थीं, यह जाना जा सकता है।
 
इस जानकारी से चंद्रमा के जन्म के कारण, उसके भूगोल और उसकी विशेषताओं का भी पता चल सकता है। चंद्रमा की भूमध्य रेखा के पास की मिट्टी में इतने सारे रहस्य नहीं छिपे हैं।
 
चंद्रमा पर पानी है या नहीं?
 
नासा की ओर से दी गई जानकारी के मुताबिक़ नासा का अपोलो 11 मिशन में चंद्रमा से चंद्र चट्टानों को पृथ्वी पर लाया था।
 
चंद्रमा की चट्टानों की जांच के बाद नासा ने निष्कर्ष निकाला कि इनमें पानी का कोई निशान नहीं है। इनकी जांच करने वाले नासा के वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि चंद्रमा की सतह पूरी तरह से सूखी है।
 
उसके बाद कुछ दशकों तक चंद्रमा पर पानी के निशान खोजने का कोई प्रयास नहीं किया गया। 1990 के दशक में, यह सुझाव दिया गया था कि चंद्रमा के अंधेरे पक्ष पर जमी हुई बर्फ़ के रूप में पानी मौजूद हो सकता है।
 
परिणामस्वरूप, नासा के क्लेमेंटाइन मिशन, लूनर प्रॉस्पेक्टर मिशन ने चंद्रमा की सतह की जांच की और उन क्षेत्रों में हाइड्रोजन की उपस्थिति पाई जहां सूर्य का प्रकाश चंद्रमा तक नहीं पहुंचता है। इससे चंद्रमा के ध्रुवों के पास पानी मौजूद होने की संभावना को बल मिला, लेकिन निश्चित रूप से पानी का कोई निशान नहीं मिला है।
 
ऑर्बिटर के साथ चंद्रयान-1 ने चंद्रमा पर क्रैश लैंडिंग के लिए एक अन्य उपकरण, मून इम्पैक्ट प्रोब भी भेजा था। जब चंद्रयान-1 का ऑर्बिटर चंद्रमा की परिक्रमा कर रहा था, तो मून इम्पैक्ट प्रोब चंद्रमा की सतह पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया।
 
18 नवंबर 2008 को चंद्रयान-1 पर 100 किमी की ऊंचाई से मून इम्पैक्ट प्रोब लॉन्च किया गया था, 25 मिनट में इसे चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर गिराया गया। लेकिन यह लैंडर की तरह सुरक्षित लैंडिंग नहीं कर सका, हालांकि इसरो इसे नियंत्रित तरीके से चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की सतह पर गिराने में सफल रहा।
 
मून इम्पैक्ट प्रोब पर सवार चंद्रास एल्टीट्यूड कंपोजिशन एक्सप्लोरर ने चंद्र सतह से 650 मास स्पेक्ट्रा रीडिंग एकत्र की और इस जानकारी का विश्लेषण करने के बाद इसरो ने 25 सितंबर 2009 को घोषणा की कि चंद्रमा पर पानी है।
 
इतिहास बनाने की खोज
 
इतिहास में पहले उपलब्धि हासिल करने वालों का नाम याद किया जाता है, जैसे कि रूस चंद्रमा पर अपना यान भेजने वाला पहला देश था, लेकिन अमेरिका चंद्रमा पर कदम रखने वाला पहला देश बना।
 
अब देखना है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने वाला भारत पहला देश बन पाता है या नहीं, लूना-25 के दुर्घटनाग्रस्त होने से यह मौक़ा अभी भी भारत के पास बना हुआ है।
 
यदि चंद्रयान-3 दक्षिणी ध्रुव पर जमी हुई मिट्टी में पानी के निशान का पता लगाता है, तो यह भविष्य के प्रयोगों के लिए अधिक उपयोगी होगा। चंद्रमा पर पानी का पता लगने पर उससे ऑक्सीजन बनाने का विकल्प भी मिलेगा, यानी मानव जीवन की संभावनाओं को तलाशा जा सकता है।
 
इतना ही नहीं ऑक्सीजन का उपयोग अंतरिक्ष प्रयोगों और चंद्रमा पर अन्य प्रयोगों के लिए प्रणोदक के रूप में भी किया जा सकता है।
 
इन सब वजहों से ही इसरो शुरू से ही चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव का पता लगाने की तैयारी कर रहा है। चंद्रयान-1 और चंद्रयान- 2 में भी इसी तरह के प्रयास किए गए थे। अब यह चंद्रयान-3 के साथ इतिहास रचने की तैयारी में है।