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Written By BBC Hindi
Last Updated : सोमवार, 10 जुलाई 2023 (10:32 IST)

विदेशों में खालिस्तान समर्थकों के प्रदर्शन में कितने लोग जुटे और कैसा था माहौल

विदेशों में खालिस्तान समर्थकों के प्रदर्शन में कितने लोग जुटे और कैसा था माहौल - How was the atmosphere in the demonstrations of Khalistan supporters abroad?
-अंशुल सिंह (बीबीसी संवाददाता)
 
Khalistani demonstrations abroad: खालिस्तान बनाम हिन्दुस्तान। बीते शनिवार को कनाडा की सड़कों पर ये नज़ारा देखने को मिला। कनाडा के टोरंटो में खालिस्तान समर्थक भारतीय दूतावास के बाहर प्रदर्शन कर रहे थे। ढोल-नगाड़ों की धुन के बीच हाथ में खालिस्तानी झंडा और जुबां पर 'खालिस्तान ज़िंदाबाद' के नारे लगाते हुए खालिस्तान समर्थक झूम रहे थे।
 
खालिस्तान समर्थकों के विरोध में उनके ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर प्रदर्शनकारी खड़े हुए थे। इन प्रदर्शनकारियों के हाथ में भारतीय झंडा तिरंगा है और लगातार 'भारत माता की जय' के नारे लगाए जा रहे थे। ये लोग भी भारतीय मूल के हैं और इन्होंने अपने पोस्टर में लिखा था- 'खालिस्तानी सिख नहीं हैं।'
 
खालिस्तान समर्थकों का आरोप है कि खालिस्तान समर्थक नेता हरदीप सिंह निज्जर की मौत में भारतीय एजेंसियों का हाथ है जिसके बाद से उन्होंने प्रदर्शन का आह्वान किया था। दूसरी तरफ़ भारतीय समुदाय के लोगों का कहना है कि खालिस्तान समर्थकों का विरोध प्रदर्शन किसी भी तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है बल्कि ये लोग चरमपंथ को बढ़ावा दे रहे हैं।
 
कहां-कहां हुए खालिस्तान समर्थकों के विरोध प्रदर्शन?
 
शनिवार को कनाडा के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में खालिस्तान समर्थकों के प्रदर्शनों ने सुर्खियां बटोरीं।
 
ब्रिटेन के लंदन में प्रदर्शनकारी 2 से 3 घंटे प्रदर्शन करने के इरादे से भारतीय उच्चायोग के बाहर इकट्ठा हुए थे लेकिन ये प्रदर्शन तय समय तक नहीं चला।
 
प्रदर्शनकारी लंदन में भारतीय उच्चायोग के बाहर भारतीय उच्चायुक्त विक्रम दुरैस्वामी और शशांक विक्रम के पोस्टर के साथ-साथ पाकिस्तान और कश्मीर के समर्थन वाले पोस्टर हाथ में लिए हुए थे।
 
बीते कुछ दिनों से खालिस्तान समर्थकों के हाथ में ऐसे पोस्टर देखे जा रहे हैं जिनमें भारतीय राजनयिकों के ख़िलाफ़ हिंसा की अपील की गई है।
 
लंदन में हल्की बारिश के बीच सिर्फ़ 30-40 प्रदर्शनकारी जुटे थे। ये संख्या इससे पहले हुए प्रदर्शनों के हिसाब से काफ़ी कम है।
 
अमेरिका में वॉशिंगटन डीसी के बाहर सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे और लगातार वाहनों की चेकिंग हो रही थी।
 
मौक़े पर पहुंचकर ख़ुद भारत के राजदूत तरणजीत सिंह संधू ने सुरक्षा व्यवस्था का जायज़ा लिया।
 
इसके अलावा अमेरिका से खालिस्तानी समर्थकों की कोई ख़ास तस्वीरें सामने नहीं आई हैं।
 
ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में भी खालिस्तान समर्थकों ने विरोध प्रदर्शन किए।
 
हालांकि यहां भी बाक़ी जगहों की तरह खालिस्तान समर्थकों का प्रदर्शन फीका रहा।
 
मेलबर्न में भारतीय कांसुलेट के बाहर प्रदर्शनकारी इकट्ठा हुए थे और खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे।
 
क्यों हो रहे हैं विरोध प्रदर्शन?
 
अलग-अलग देशों में हो रहे विरोध प्रदर्शनों के पीछे वजह है- खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की मौत।
 
शनिवार 8 जुलाई को भी हुए प्रदर्शन हरदीप सिंह निज्जर की कथित हत्या के विरोध में आयोजित किए गए थे।
 
कनाडा के टोरंटो में प्रदर्शन के दौरान सिख्स फॉर जस्टिस के प्रवक्ता कुलजीत सिंह ने कहा था, 'अगर भारतीय एजेंसी और सिस्टम अपराध कर रहा है तो उन्हें ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।'
 
कुलजीत सिंह ने ये बयान खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की मौत के संदर्भ में दिया था।
 
प्रदर्शन में शामिल हुए वकील हरकीत सिंह का कहना है कि रॉयल केनेडियन माउंटेड पुलिस को इस हत्याकांड की जांच करनी चाहिए। ये राजनीतिक हत्या है।
 
18 जून को कनाडा के सरे शहर में खालिस्तान समर्थक नेता हरदीप सिंह निज्जर की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। हरदीप भारत सरकार की नज़र में यूएपीए के तहत आतंकवादी थे और 'वांटेड' लिस्ट में शामिल थे।
 
खालिस्तान समर्थकों का आरोप है कि भारतीय एजेंसियों ने ही निज्जर को मरवाया है।
 
निज्जर से पहले 15 जून को खालिस्तान लिबरेशन फोर्स (केएलएफ़) के नेता अवतार सिंह खांडा की मौत ब्रिटेन में बर्मिंगम के एक अस्पताल में हुई थी। संदेह है कि अवतार सिंह को ज़हर दिया गया था।
 
6 मई को केएलएफ़ प्रमुख परमजीत सिंह पंजवड़ की लाहौर में अज्ञात हमलावरों द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।
 
23 जनवरी को केएलएफ़ के ही मुख्य चेहरों में से एक हरमीत सिंह उर्फ़ हैप्पी पीएचडी को लाहौर में एक गुरुद्वारे के बाहर गोली मार दी गई थी।
 
खालिस्तान समर्थक इन मौतों को लेकर भारतीय एजेंसियों पर हत्या का आरोप लगाते हैं।
 
विदेश में प्रदर्शनों के पीछे किसका हाथ है?
 
लंदन में जब खालिस्तान समर्थक प्रदर्शन कर रहे हैं तो बीबीसी ख़ालिद करामात वहां मौक़े पर मौजूद थे।
 
ख़ालिद बताते हैं, 'शनिवार को प्रदर्शन से पहले सोशल मीडिया पर पोस्ट शेयर कर मुहिम चलाई जा रही है। इन पोस्टर में खालिस्तानी समर्थकों की मौत को कारण बताते हुए प्रदर्शन की बात लिखी थी।'
 
लंदन में प्रदर्शन वाली जगह पर ख़ालिद ने प्रदर्शनकारियों से बात की और प्रदर्शन से जुड़े सवाल किए।
 
ख़ालिद कहते हैं, 'प्रोटेस्ट को लीड कर रहे है एक ख़ालिस्तान समर्थक नेता ने मुझे बताया था कि उनका संबंध 'सिख फ़ॉर जस्टिस' से है, जो खालिस्तान आंदोलन से जुड़ी एक संस्था है। हालांकि इस प्रदर्शन में बहुत ज्यादा लोग नहीं आए थे। वहां प्रदर्शनकारियों से ज़्यादा सुरक्षाकर्मी मौजूद थे।'
 
वहीं वरिष्ठ पत्रकार और लेखक जगतार सिंह का मानना है कि इस तरह के प्रदर्शनों के पीछे किसी व्यक्ति या संगठन से ज़्यादा एक विचारधारा का हाथ है।
 
जगतार सिंह कहते हैं, 'ख़ालिस्तान एक नैरेटिव है। पंजाब में यह मुद्दा पिछले 50 साल से चल रहा है। एक वर्ग है जो खालिस्तान के लिए काम करता है। साल 1970 के बाद से लगातार चर्चा में है और पंजाब में इसके लिए बड़ा आंदोलन भी हुआ है। सरकार ने ऑपरेशन ब्लू-स्टार किया जिसमें हज़ार से ज्यादा लोग मारे गए। बात यहां विचारधारा की है जो कभी ऊपर तो कभी नीचे होती रहती है।'
 
भारत सख़्त तो विदेशी सरकारें नरम क्यों?
 
8 जुलाई के प्रदर्शन से पहले ख़ालिस्तान समर्थकों ने एक पोस्टर ज़ारी किया था।
 
पोस्टर में भारतीय राजनयिकों की तस्वीरें लगाई गई थीं और लिखा गया था कि ये राजनयिक 'खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के ज़िम्मेदार हैं।'
 
पोस्टर सामने आने के बाद विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने खालिस्तान समर्थकों को लेकर अपनी प्रतिक्रिया दी थी।
 
जयशंकर ने कहा था, 'हमारे पार्टनर देश जैसे कनाडा, अमेरिका, यूके, ऑस्ट्रेलिया हैं, जहां कभी-कभी खालिस्तानी एक्टिविटी होती हैं। हमने उनसे अनुरोध किया है कि वो खालिस्तानियों को स्पेस न दें।'
 
बीते गुरुवार को भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने इस मामले को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी और कहा था, 'ये अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल नहीं है। इसका इस्तेमाल हिंसा, अलगाववाद और आतंकवाद को सही ठहराने के लिए किया जा रहा है। उन्होंने इसके लिए अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में खालिस्तान समर्थक तत्वों को दिए जा रहे कथित समर्थन का मुद्दा भी उठाया।'
 
इसके बाद ब्रिटेन और कनाडा की तरफ़ से ख़ालिस्तान समर्थकों को लेकर सार्वजनिक बयान दिए गए थे।
 
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने कहा था कि उनकी सरकार ने हमेशा से हिंसा और धमकियों को बेहद गंभीरता से लिया है।
 
वहीं ब्रिटेन के विदेश मंत्री जेम्स क्लेवरली ने भारत के राजनयिक मिशनों पर हमलों के सिलसिले में सुरक्षा का आश्वासन दिया था।
 
अब सवाल है कि जब भारत इतनी गंभीरता से ऐसे मामलों पर कड़ा रुख अपनाता है तो विदेश में उसी सख्ती से ख़ालिस्तान समर्थकों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती है?
 
इस सवाल का जवाब देते हुए जगतार सिंह कहते हैं, 'सबसे पहले भारत के लोकतंत्र और यूरोपीय, पश्चिमी देशों के लोकतंत्र को गौर से देखना पड़ेगा। भारत एक औपनिवेशिक लोकतंत्र है जबकि ब्रिटेन और कनाडा जैसे देश परिपक्व लोकतंत्र की श्रेणी में आते हैं। परिपक्व लोकतंत्र में इस तरह के शांतिपूर्ण प्रदर्शन स्वीकार हैं।'
 
'स्कॉटलैंड ने ब्रिटेन से अलग होने पर जनमत संग्रह की मांग की और फिर जनमत संग्रह हो गया। उन पर कोई देशद्रोह का कोई मुक़दमा नहीं चलाया गया। कनाडा में क्यूबेक ने जनमत संग्रह मांगा तो उन्होंने इसकी अनुमति दे दी थी।'
 
जगतार सिंह कहते हैं कि परिपक्व लोकतंत्र वाले देश बिना हिंसक हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हुए अलग देश की मांग करने की इजाज़त देते हैं। अगर प्रदर्शन हिंसक होता है तो वहां की सरकारें कार्रवाई भी करती हैं।
 
प्रदर्शन पर भारतीय दूतावास या उच्चायोग क्या करते हैं?
 
इसी साल मार्च के महीने में ब्रिटेन की राजधानी लंदन में खालिस्तानी समर्थकों की उग्र भीड़ भारतीय उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन किया था।
 
इस दौरान भीड़ में से एक व्यक्ति ने भारतीय उच्चायोग पर लगे तिरंगे को उतार दिया था।
 
घटना के बाद ब्रिटिश राजनयिक को तलब किया गया और 'सुरक्षा व्यवस्था न होने' पर स्पष्टीकरण मांगा था।
 
विदेश मंत्रालय ने बयान में कहा था कि 'भारत को ब्रिटेन में भारतीय राजनयिक परिसरों और वहां काम करने वालों की सुरक्षा के प्रति ब्रिटेन सरकार की बेरुख़ी देखने को मिली है, जो अस्वीकार्य है।'
 
तब भारत में मौजूद ब्रिटिश उच्चायुक्त एलेक्स एलिस ने इस घटना की निंदा की थी।
 
ऐसे स्थिति में उच्चायोग या दूतावास की भूमिका काफ़ी अहम होती है और इस बारे में विस्तार से जानकारी के लिए बीबीसी ने पूर्व राजनयिक अरुण सिंह से बातचीत की।
 
अरुण सिंह कहते हैं, 'अगर प्रदर्शन कोई अवांछित गतिविधि होती है तो सबसे उस देश की स्थानीय सरकार को सूचित किया जाता है। वैसे तो आमतौर पर स्थानीय सरकार स्वत: संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि सुरक्षा बंदोबस्त उन्हीं की तरफ़ से किए जाते हैं।'
 
'वियना संधि के अंतर्गत मेज़बान सरकार की ज़िम्मेदारी है कि जितनी भी सुरक्षा की ज़रूरत हो उसे उपलब्ध कराया जाए ताकि हमारे राजनयिक और संस्थानों को किसी भी तरह की कोई क्षति न पहुंचे। अगर कोई मामला होता है तो स्थानीय सरकार उसे देखती है और दूतावास उस पर नज़र बनाए रखता है।'
 
स्वतंत्र और संप्रभु देशों के बीच आपसी राजनयिक संबंधों को लेकर ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में साल 1961 में एक संधि हुए थी। इसे ही वियना संधि कहते हैं।
 
वियना संधि के तहत राजनयिक मिशन के विशेषाधिकारों को परिभाषित किया गया है। यह संधि मुख्य रूप से राजनयिक प्रतिरक्षा के लिए कानूनी आधार प्रदान करती है।
 
खालिस्तान से जुड़े प्रदर्शनों का भविष्य क्या है?
 
विदेश में खालिस्तान समर्थकों के प्रदर्शन और दावेदारी को लेकर पत्रकार जगतार सिंह का मानना है कि इस तरह के प्रदर्शन यूरोप और पश्चिमी देशों में आम हैं।
 
जगतार सिंह कहते हैं, 'पंजाब में खालिस्तान के लिए शुरू हुए आंदोलन जब तक ख़त्म नहीं होता है तब तक इस तरह के विरोध प्रदर्शन होते रहेंगे। पंजाब से शुरू हुए इस उग्र आंदोलन का बंद होना ज़रूरी है।'
 
'अभी तक दुनिया को यह नहीं बताया गया कि ऑपरेशन ब्लू स्टार में कितने लोग मारे गए थे। सरकार ने उस समय जो आंकड़े दिए थे वो ग़लत हैं। लोगों को असलियत पता चलनी हैं।'
 
'पंजाब में हज़ारों फेक एनकाउंटर हुए उनकी जांच होनी चाहिए कि आख़िर ज़िम्मेदार कौन थे? ख़ालिस्तान के आंदोलन का बंद होना इन बातों पर भी निर्भर करता है।'
 
ख़ालिस्तान समर्थकों जैसे विरोध प्रदर्शनों के भविष्य को लेकर पूर्व राजनयिक अरुण सिंह कहते हैं,
 
'भारत एक शक्तिशाली देश है और भारत अपनी अखंडता को बनाए रखने में पूरी तरह सक्षम है। इस तरह के प्रदर्शनों से भारत की अखंडता पर कोई ख़तरा नहीं आयेगा। लेकिन वियना संधि और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को ध्यान में रखते हुए हर देश की ज़िम्मेदारी है कि इस तरह के प्रदर्शनों को अनुमति न दे।'
 
'खालिस्तान' शब्द पहली बार 1940 में सामने आया था। मुस्लिम लीग के लाहौर घोषणापत्र के जवाब में डॉक्टर वीर सिंह भट्टी ने एक पैम्फ़लेट में इसका इस्तेमाल किया था।
 
इसके बाद 1966 में भाषाई आधार पर पंजाब के 'पुनर्गठन' से पहले अकाली नेताओं ने पहली बार 60 के दशक के बीच में सिखों के लिए स्वायत्तता का मुद्दा उठाया था।
 
70 के दशक की शुरुआत में चरण सिंह पंछी और डॉक्टर जगजीत सिंह चौहान ने पहली बार खालिस्तान की मांग की थी।
 
1978 में चंडीगढ़ के कुछ नौजवान सिखों ने खालिस्तान की मांग करते हुए दल खालसा का गठन किया।
 
खालिस्तान की पहली औपचारिक मांग 29 अप्रैल 1986 को उग्रवादी संगठनों की संयुक्त मोर्चा पंथक समिति द्वारा की गई थी।
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