भोपाल। मध्यप्रदेश में पिछले 5 सालों में कुल 89 बाघों की मौत हुई है जिनमें से 11 शावक थे। वर्तमान में प्रदेश में अनुमानित कुल 400 से अधिक बाघ एवं शावक हैं।
मध्यप्रदेश वन विभाग से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2012 से वर्ष 2016 तक प्रदेश में 11 शावकों सहित कुल 89 बाघों की मौत हुई है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में 16 बाघों की मौत हुई, जबकि वर्ष 2013 में 11, वर्ष 2014 में 14, वर्ष 2015 में 15 एवं वर्ष 2016 में 33 बाघों की मृत्यु हुई।
वर्ष 2012 से वर्ष 2015 तक औसतन लगभग 14 बाघों की मौत हर साल हुई, जबकि वर्ष 2016 में 33 बाघों की मौत हुई, जो पिछले 4 वर्षों की बाघों की औसतन मौत से तुलना करने पर दोगुनी से भी ज्यादा है।
आंकड़ों के अनुसार जिन 89 बाघों की पिछले 5 वर्षों में मौत हुई, उनमें से 30 बाघ आपसी संघर्ष में मारे गए जबकि 22 बाघों को शिकारियों ने शिकार, जहर या विद्युत करंट से मारा। बाकी बाघ बीमारी, वृद्धावस्था या अन्य कारणों से मरे।
हालांकि इतनी बड़ी संख्या में बाघों के मरने के बाद भी वन्यजीव संरक्षकों एवं बाघों में रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह खुशखबरी है कि राज्य में बाघों एवं शावकों की संख्या पिछले 5 सालों में निरंतर बढ़ी है, क्योंकि जितने बाघ मरे, उनसे ज्यादा शावकों ने जन्म लिया है।
मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यप्राणी) जितेन्द्र अग्रवाल ने बताया कि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा की गई बाघों की गणना के अनुसार वर्ष 2011 में मध्यप्रदेश में सिर्फ 257 बाघ थे, जबकि वर्ष 2014 में यह संख्या बढ़कर 308 हो गई और वर्तमान में प्रदेश में अनुमानित कुल 400 से अधिक बाघ एवं शावक हैं।
अग्रवाल ने कहा कि मध्यप्रदेश में 6 टाइगर रिजर्व कान्हा, बांधवगढ़, पेंच, पन्ना, सतपुड़ा एवं संजय हैं और वर्ष 2016 में इन सभी में कुल 216 बाघ हैं। इनके अलावा कई बाघ प्रदेश के जंगलों में भी हैं। यदि हम बाघ के शावकों को भी उनकी गणना में शामिल करते हैं, तो प्रदेश में वर्तमान में अनुमानित कुल 400 से अधिक बाघ हैं। ये आंकड़े संरक्षण एवं संवर्द्धन के प्रयास दिखा रहे हैं। उन्होंने बताया कि भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या बढ़ रही है।
हालांकि वन्यजीव कार्यकर्ता अजय दुबे ने बताया कि बाघों की मौतों में जो वृद्धि हुई है, उसके लिए वन विभाग के अधिकारियों की लापरवाही भी एक कारण है, क्योंकि इन 5 वर्षों में जो 89 बाघ मरे हैं उनमें से 30 बाघ क्षेत्राधिकार के लिए हुए आपसी संघर्ष में मारे गए, जबकि 22 बाघों को शिकारियों ने शिकार करके, जहर देकर या विद्युत करंट देकर मारा। यदि वन विभाग सतर्क रहता तो इन 52 बाघों को बचाया जा सकता था।
उन्होंने कहा कि वर्ष 2005 में केंद्र सरकार द्वारा गठित कार्य बल ने सिफारिश की थी कि किसी भी बाघ की अस्वाभाविक मौत पर किसी न किसी अधिकारी या कर्मचारी की जिम्मेदारी तय की जाए लेकिन राज्य में इसका पालन नहीं किया जा रहा है। दुबे ने आरोप लगाया कि राज्य में बाघों का शिकार करने वाले लोग अदालत से आमतौर पर बरी हो जाते हैं, क्योंकि सरकारी अधिकारी ही अदालतों में अपने बयानों से पलट जाते हैं। सजा पाने वाले शिकारियों की संख्या न के बराबर है।
उन्होंने कहा कि बाघों के शिकार के मामलों में सरकारी अधिकारी अदालतों में अपने बयानों से पलट जाते हैं। इससे शिकारी सजा पाने से बच जाते हैं। ऐसे मामलों में वैज्ञानिक सबूत इकट्ठा करने के लिए राज्य में विशेषज्ञ भी नहीं हैं।
दुबे ने यह भी दावा किया कि बाघों के शिकार में लिप्त अपराधियों का पता लगाने के लिए वन विभाग एवं पुलिस विभाग में कोई तालमेल भी नहीं है। उन्होंने कहा कि वन विभाग का खराब नेटवर्क एवं शिकारियों के बारे में खुफिया जानकारी का अभाव भी बाघों की मौत के लिए जिम्मेदार हैं।
प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यप्राणी) जितेन्द्र अग्रवाल ने कहा कि पिछले कुछेक वर्षों से वन्यप्राणी संरक्षण एवं संवर्द्धन के अंतर्गत राज्य में बाघों पर औसतन लगभग 40 से 45 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष खर्च हो रहे हैं। इसके अलावा उन गांवों के लोगों की पुनर्स्थापना के तहत भी 10 लाख रुपए उस व्यक्ति को दिए जाते हैं जिसकी जमीन को बाघों के आवास बनाने के लिए खाली कराया जाता है।
उन्होंने कहा कि व्यापार के लिए बाघों के शिकार क मामलों में हम कमी लाने में सफल रहे हैं, लेकिन किसान द्वारा जंगली जानवरों से अपनी फसलों को बचाने के लिए लगाए गए फंदे या करंट की चपेट में आने से हुई बाघों की अब भी मौत हो रही है। इसके लिए वनकर्मियों के गश्त करने के अलावा हम लोगों को जागरूक कर रहे हैं।
अग्रवाल ने एक सवाल के जवाब में कहा कि बाघों द्वारा मारे गए व्यक्ति को राज्य में 4 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाता है, हालांकि सरकारी कानून के तहत मुआवजा भुगतान करने की समयसीमा 1 हफ्ते है, लेकिन हम अमूमन 1 या 2 दिन में मृतक के परिजन को मुआवजा दे देते हैं। (भाषा)