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Written By WD Feature Desk
Last Updated : शनिवार, 13 सितम्बर 2025 (16:39 IST)

Jivitputrika vrat 2025: जीवित्पुत्रिका जितिया व्रत का महत्व और पौराणिक कथा

Jitiya Vrat 2025
Jitiya Vrat 2025: हिंदू कैलेंडर के अनुसार आश्विन मास की कृष्ण की सप्तमी तिथि पर जितिया व्रत रखा जाता है। इसे ही जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहते हैं। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार यह व्रत 13 सितंबर 2025 शनिवार के दिन रखा जाएगा। जितिया व्रत, जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहते हैं, हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण और कठिन व्रत है। यह व्रत मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड राज्यों में माताओं द्वारा अपनी संतान की लंबी आयु, स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि के लिए किया जाता है।
 
जितिया व्रत का महत्व: जितिया व्रत का महत्व मां और संतान के बीच के अटूट रिश्ते को दर्शाता है। ऐसी मान्यता है कि इस कठिन व्रत को पूरी श्रद्धा और निष्ठा से करने वाली माता की संतान पर आने वाले सभी कष्ट और बाधाएं दूर हो जाती हैं। यह व्रत मां के त्याग, तप और ममता का प्रतीक है। यह व्रत तीन दिनों तक चलता है और इसके नियम बहुत सख्त होते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार यह व्रत संतान की लंबी आयु तथा सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है। माताएं इस दिन निर्जला व्रत रखकर भगवान जीमूतवाहन का विधिवत पूजन-अर्चन करती हैं। यह व्रत बच्चों की प्रसन्नता, उन्नति के लिए रखा जाता हैं तथा इस व्रत को रखने से संतान की उम्र लंबी होती है। 
1. पहला दिन (नहाय-खाय): व्रत की शुरुआत सप्तमी तिथि को "नहाय-खाय" के साथ होती है। इस दिन माताएं सुबह स्नान करती हैं और सात्विक भोजन ग्रहण करती हैं, जिसमें बिना प्याज-लहसुन का खाना शामिल होता है।
 
2. दूसरा दिन (जितिया व्रत): अष्टमी तिथि को मुख्य व्रत रखा जाता है। इस दिन व्रती महिलाएं निर्जला उपवास करती हैं, जिसका अर्थ है कि वे अन्न और जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करती हैं। यह व्रत पूरे दिन और रात तक चलता है। इस दिन भगवान जीमूतवाहन की पूजा की जाती है।
 
3. तीसरा दिन (पारण): नवमी तिथि को व्रत का पारण किया जाता है। पारण का अर्थ है व्रत तोड़ना। महिलाएं सुबह पूजा-पाठ करने और सूर्य देव को अर्घ्य देने के बाद ही भोजन ग्रहण करती हैं।
 
जीवित्पुत्रिका से जुड़ी पौराणिक कथाएं
1. अश्वथामा से जुड़ी कथा: जितिया/ जीवित्पुत्रिका या जिउतिया व्रत की यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। जिसके अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद अश्वथामा अपने पिता की मृत्यु की वजह से बहुत क्रोध में था। वह अपने पिता की मृत्यु का पांडवों से बदला लेना चाहता था। एक दिन उसने पांडवों के शिविर में घुस कर सोते हुए पांडवों के बच्चों को मार डाला। उसे लगा था कि ये पांडव हैं। लेकिन वो सब द्रौपदी के पांच बेटे थे। इस अपराध की वजह से अर्जुन ने उसे गिरफ्तार कर लिया और उसकी मणि छीन ली।
इससे आहत अश्वथामा ने उत्तरा के गर्भ में पल रही संतान को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया। लेकिन उत्तरा की संतान का जन्म लेना जरूरी था। जिस वजह से श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्य का फल उत्तरा की गर्भ में मरी संतान को दे दिया और वह जीवित हो गया। भगवान श्री कृष्ण की कृपा से गर्भ में मरकर जीवित होने के वजह से इस बच्चे को जीवित्पुत्रिका नाम दिया गया। यही आगे चलकर राज परीक्षित बने। तभी से संतान की लंबी उम्र के लिए हर साल जिउतिया व्रत रखने की परंपरा को निभाया जाता है। 
 
2. राजा जीमूतवाहन की कथा: एक कथा के अनुसार, जीमूतवाहन एक गंधर्व राजकुमार थे, जिन्होंने एक नागिन के पुत्र को गरुड़ से बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था। उनके इस त्याग और बलिदान से प्रभावित होकर, माताएं अपनी संतान की रक्षा के लिए उनकी पूजा करती हैं। कथा के अनुसार गंधर्व राजकुमार जीमूतवाहन ने नागवंश की रक्षा के लिए स्वयं को पक्षीराज गरुड़ का भोजन बनने के लिए सहर्ष तैयार हो गए थे। 
 
उन्होंने अपने साहस और परोपकार से शंखचूड़ नामक नाग का जीवन बचाया था। उनके इस कार्य से पक्षीराज गरुड़ बहुत प्रसन्न हुए थे और नागों को अपना भोजन न बनाने का वचन दिया था। पक्षीराज गरुड़ ने जीमूतवाहन को भी जीवनदान दिया था। इस तरह से जीमूतवाहन ने नाग वंश की रक्षा की थी। इस घटना के बाद से ही हर वर्ष आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को जितिया व्रत या जीवित्पुत्रिका व्रत रखा जाने लगा। 
 
3. चील और सियारन की कथा: दूसरी कथा एक चील और एक सियारन की है, जिन्होंने साथ मिलकर जितिया व्रत करने का फैसला किया। चील ने पूरे नियमों का पालन किया, जबकि सियारन ने भूख सहन न कर पाने के कारण व्रत तोड़ दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि चील के बच्चे हमेशा जीवित और सुखी रहे, जबकि सियारन के बच्चे जीवित नहीं रहे। इस कथा से यह सीख मिलती है कि व्रत का फल तभी मिलता है जब उसका पालन पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ किया जाए।
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