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Last Updated : मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017 (17:05 IST)

'विकास' के दावे और भूखों मरते लोग

'विकास' के दावे और भूखों मरते लोग - hunger deaths in Jharkhand
नई दिल्ली। देश में हाल ही में झारखंड में तीन लोगों की भूख से मौत ने हमारे तथाकथित विकास और बढ़ती अर्थव्यवस्था की पोल खोल कर दी है। दुनिया में एक भूखे देश के तौर पर हम कहां हैं, यह जानकारी आपको सरकार और व्यवस्था के प्रचार की बजाय वास्तविकता को दिखाती है। शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि भूखे मरते लोगों की सूची में हम बांग्लादेश और पाकिस्तान, श्रीलंका से भी पीछे हैं। 
 
लेकिन हमारे यहां विकास का मतलब आधार कार्ड, पैन कार्ड, जीएसटी, नोटबंदी, आरक्षण की लड़ाई है, पर जिन लोगों के लिए भयानक विपरीत परिस्थितियों में जीवित बने रहना ही 'विलासिता' है, ऐसे लोगों के लिए ऐसे नए-नए नियम और कानून बनाए जाते हैं, जिन्हें समझने के लिए अर्थशास्त्रियों, चार्टर्ड अकाउंटेंट्‍स का दिमाग भी चकरा जाए।    
 
ऐसा लगता है कि क्या इन समस्याओं से भारतीय समाज कभी उबर भी पाएगा क्योंकि हमारे सत्ताधीशों को कभी भूखा नहीं रहना पड़ता है ? लेकिन में भूख से मरना तो उन लोगों के लिए आरक्षित है जिनका आधार कार्ड है नहीं, है तो राशन कार्ड से नहीं जुड़ा है। 
 
मीडिया की सक्रियता देखिए कि इस तरह की घटनाओं की जानकारी मिलने में हफ्तों, महीनों लग जाते हैं और राज्य सरकार, मुख्‍यमंत्री और प्रशासन पूरी बेशर्मी से कह देते हैं कि तीन लोगों की मौत भूख नहीं वरन बीमारियों से हुई है। 
 
पीड़ित परिवारों को जन-वितरण प्रणाली के तहत पिछले 8 महीनों से सिर्फ इस वजह से राशन नहीं दिया गया क्योंकि उसका राशन कार्ड आधार से जोड़ा नहीं जा सका था? ऐसा करना इसलिए जरूरी था क्योंकि राज्य की मुख्य सचिव श्रीमती राजबाला वर्मा ने इस मामले में सख्त आदेश दिए थे। 
 
हालांकि रांची हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा भी था कि जिनके राशन कार्ड आधार से नहीं जोड़े गए हैं, उन्हें भी राशन दिया जाए। राशन के अभाव में, पीड़ित परिवार के घर पर कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला। 
 
फिर भी हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना क्यों की गई, राशन कार्ड को आधार से लिंक नहीं किया गया था, तो इसकी पहल क्यों नहीं की गई, जैसे सवाल अनुत्तरित हैं। लगभग 8 महीने से राशन का न मिलना हमारी जन-वितरण प्रणाली की पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े करती है। दस वर्ष की  बच्ची की भूख से मौत से कम से कम देश के नौकरशाहों की मानवता तो कभी भी शर्मसार नहीं होगी। 
 
फिलहाल देश में जीडीपी, जीएसटी, नोटबंदी, पगलाया विकास, गुजरात चुनाव, गौरव यात्रा, बाबाओं के रोमांस आदि का प्रचार प्रसार इतना अधिक है कि इस कोलाहल में भला भूखे पेट वाले मुंह से निकली आह और कराह की आवाज सुनाई नहीं पड़ती है। लेकिन आंकड़े और तथ्य चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि लाखों टन अनाज और सब्जियां गोदामों में सड़ रही हैं फिर भी आजादी के 70 सालों बाद भी इस देश का हर तीसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। 
 
युवा भारत की ताकत हैं लेकिन हम हर दिन अपने 14 से 29 साल की आयु वर्ग के लगभग डेढ़ सौ युवाओं को उनके द्वारा आत्महत्या किए जाने से खो रहे हैं। इसका मुख्य कारण है, उनके अंदर घर कर गई घोर हताशा, जहां उन्हें आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती। हमारे करीब 55 फीसदी युवा,  घोर निराशा, ड्रग्स आदि की बढ़ती हुई लत के शिकार हो रहे हैं। 
 
लेकिन क्या जो रोजगार में हैं, उनकी मानसिक स्थिति बेहतर है? हम भारतीयों को हृदय रोग का खतरा 60% है, जबकि वैश्विक स्तर पर यह 48% है। काम करने के तनाव की रेटिंग भारत में सर्वाधिक है। यही कारण है कि करीब 40% लोग लगातार अपनी नौकरियां बदलने के चक्कर में ही पड़े रहते हैं। 

यदि इस भूमंडलीकरण के कारण भुखमरी नहीं मिट रही है, लोगों को रोजगार नहीं मिल रहा है, जिन्हें मिल गया है, वे खुश नहीं हैं, जीने की बजाय मरना बेहतर नजर आ रहा है, तो आप इस वैश्वीकरण  का करेंगे क्या? 
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