बिहार विधानसभा चुनाव में कट्टे का जिक्र कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार इसके आकर्षण को बढ़ा दिया। वैसे भी कट्टे और कनपटी का रिश्ता पुराना है। अगर कट्टा, कनपटी पर दग जाए तो शिकार का बचना मुश्किल है। हालांकि मैंने फिल्म बाहुबली नहीं देखी है, पर अगर फिल्म में बाहुबली द्वारा कटप्पा को मारने का कोई दृश्य है तो उसकी रीयल फील कटप्पा को कट्टे से ही मारने आती। ऐसा होता तो फिल्म का पूरा नैरेटिव ही चेंज हो जाता।लोग कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा! इसकी जगह यह कहते, बाहुबली को कटप्पा ने कट्टे से कनपटी पर क्यों नहीं मारा?
प्रधानमंत्री द्वारा 'कनपटी पर कट्टे' की चर्चा के बाद इसकी मांग कितनी बढ़ी है। यह तो पता नहीं। यूं भी इसका स्टीक पता या तो कोई खोजी पत्रकार लगा सकता है या सरकार।
मुंगेर के कट्टे का कोई जवाब नहीं : फिलहाल फोकस में कट्टे और बिहार को ही रखते हैं। असलहे के प्रति आकर्षण रखने वाले हर व्यक्ति को पता होगा कि मुंगेर के कट्टे का कोई जवाब नहीं होता। यह भी कि सिर्फ अवैध रूप से कट्टा रखने वालों के अलावा वह लोग भी अनिवार्य रूप से कट्टा रखते हैं जो लाइसेंसी हथियार रखते हैं। अधिकांश वारदातें कट्टे से ही होती हैं। कहा जाता है कि किसी से बरामदगी दिखाने या किसी को नापने के लिए पुलिस वाले भी कट्टे या इसके जैसी दिखने वाली चीज का ठीकठाक स्टॉक रखते हैं।
कमर में कपड़े के नीचे अगर कट्टा हो तो संबंधित व्यक्ति की चाल में अपने आप अकड़ आ जाती है। बात सरेआम होते ही उस व्यक्ति का सम्मान बढ़ जाता है। उसकी हर बात वजनी लगने लगती है। राह से गुजरने के दौरान सलाम करने वालों की संख्या बढ़ जाती है।
किशोर और कट्टा : जो किशोर जिन लड़कों को अभी मूंछ निकल रही हो। और उनको बारूद की गंध अच्छी लगती हो उन पर इलाके के माफिया और अपराधी तत्वों की नजर रहती है। अगर वे अपने इलाके के बाहुबली की शागिर्दगी कबूल करने को तैयार हैं तो उनको बतौर गिफ्ट एक अदद कट्टा मिल जाता। गुरु को अगर पूत के पाव पालने में ही नजर आने लगता है तो टेस्ट के लिए शागिर्द को टारगेट भी दे दिया जाता है। अगर टारगेट पूरा हुआ तो तुरंत प्रमोशन भी।
अब एक रीयल घटना : बात करीब साढ़े तीन दशक पहले की है। मेरे एक परिचित थे। सामान्य कद काठी और खींच-खांचकर बीए पास। घर की माली हालत ठीक न होने से गांव में उनकी कोई पूछ नहीं थी। उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर उनके पट्टीदार उन्हें बेजा सताते थे। उनकी जमीन-जायदाद हड़पने के चक्कर में रहते थे।
कट्टा, कमर और किस्मत : तभी उनको इन सारी समस्याओं से निजात पाने का एक नायाब तरीका सूझा। वह जुगत करके एक कट्टा लाए। कानों-कान गांव में खबर फैल गयी कि फलाने तो कट्टा रखते हैं। उनकी कमर से कट्टे का रिश्ता जुड़ते ही चंद महीनों में उनकी किस्मत पलट गयी। वे गांव के सरगनाओं में शुमार होने लगे। पहले जो लोग उन्हें देखकर मुंह मोड़ लेते थे, वे अदब से भैया सलाम बोलने लगे। पट्टीदारों से अपना विवाद तो सुलझ ही गया। अब वे गांव के छोटे-मोटे झगड़े खुद सुलझाने लगे। गांव सभा की आबादी की जमीन में किसकी झोपड़ी पड़ेगी व किसकी उठेगी, इसमें उनकी अहम भूमिका होने लगी।
कट्टे से मिली इस शोहरत से वे खुश तो थे पर संतुष्ट नहीं। और इज्जत आफजायी के लिए उनकी दिली तमन्ना रिवाल्वर प्राप्त करने की थी। इसे हासिल करने के बाद-शायद वे और बेहतर हथियार का सपना देखते।
बिहार और उप्र के बहुत से किशोरों का सपना ही है एक अदद कट्टा : गौरतलब है कि यह मात्र एक व्यक्ति का सपना नहीं है। जबसे राजनीति का अपराधिकरण शुरू हुआ तबसे युवकों में इस तरह के सपने सामान्य हो गये। समाज में हथियार और हथियारधारक जिस तरह स्वीकार्य हुए हैं, उससे समूचे देश के युवकों में किशोरावस्था से ही सपने की एक सिल-सिलेवार दुनिया बनने लगी। बिहार और उत्तर प्रदेश चूंकि राजनीति के अपराधीकरण की प्रयोगशाला थे, इसलिए यहां के युवाओं में कट्टे के प्रति सर्वाधिक आकर्षण भी रहा।
यहां का किशोर सोचता है कि बड़ा होकर वह एक अदद कट्टा खरीदेगा या उसकी व्यवस्था करेगा। इससे मिली शोहरत को भुनाते हुए वह बंदूक, रिवाल्वर, रायफल या इससे बेहतर हथियार हासिल करेगा। हथियारों की बेहतरी के साथ उसका सामाजिक सरोकार भी बढ़ेगा। वह दो पहिया वाहन से चार पहिया वाहन पर चलने लगेगा। इज्जत अधिक बढ़ गई तो इन वाहनों का काफिला उसके पीछे-पीछे चलेगा। वह जिधर से गुजरेगा लोग उसे फर्शी सलाम बजाएंगे। निजी से लेकर सार्वजनिक जीवन तक के सभी मौकों पर उसकी मौजूदगी से लोग धन्य होंगे। उसका जनाधार बढ़ेगा, जिसके सहारे वह बारास्ता निर्दलीय या दलीय उम्मीदवार के रूप में विधान परिषद या संसद तक पहुंच जाएगा। तबसे अब तक ऐसे तत्वों में से कई मंत्री बन चुके हैं और हैं।
एक बार राजनीति का मुलम्मा चढ़ने के बाद उसके पिछले सारे काले कारनामे राजनीति के कथित गंगाजल में घुल जाएंगे। आगे किए जाने वाले कुकृत्यों के लिए राजनीति उसकी ढाल बन जाएगी। इसके बावजूद अगर किसी सरकार ने उन पर हाथ डालने की कोशिश की तो उसे तथाकथित जनप्रतिनिधियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ेगा। दोनों ओर से गोलियां चल सकती हैं। लोग मर या घायल हो सकते हैं। अचानक अगर गिरफ्तार भी हुआ तो तुरंत गंभीर रूप से बीमार हो जाएगा। हैसियत के हिसाब से वह जेल या जिला अस्पताल या मेडिकल कालेज में भर्ती होकर वीआईपी सुविधाओं का लाभ उठाएगा। दरबार लगाएगा। पहले की तरह पंचायत करेगा। जरूरत पर रंगदारी भी मांग सकता है। वहीं से चुनाव लड़कर जीत भी सकता है। नहीं लड़ने योग्य है तो किसी का चुनाव प्रभावित करने किए उसे आसानी से पैरोल भी मिल सकती है।
माफ करिएगा, मैं यह किसी हारर फिल्म की पटकथा नहीं लिख रहा हूं। ये सारे वाकये अभी हाल के घटनाक्रमों में अनेक ऐसे जनप्रतिनिधियों के कारनामों से लिए गए हैं।
राजनीति व अपराध के इस गठजोड़ और उससे प्राप्त 'शार्टकट' तरक्की पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। निश्चित रूप से यह सब किशोर मन को इस रास्ते की ओर खींचता है, पर उसके साथ यह भी सच है कि संचार माध्यम इस सबको इतना ग्लैमराइज करके पेश करते हैं कि उसका भी इस सपने को रचने में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
जहां पहले ये सारी चीजें संचार माध्यमों खासकर अखबारों में मात्र विश्लेषण के लिए भीतर के गंभीर पृष्ठों में जगह पाती थी, वहीं अब इनका विधिवत फोटो सत्र करके टीवी और अखबारों में प्रमुखता से परोसा जाता है। इससे इनके प्रति समाज में घृणा तो पैदा होने से रही उल्टे उनके प्रति एक आकर्षण जरूर बढ़ रहा है। संभव है हिसा के इस जमाने में उस अखबार या पत्रिका की 'सेलेबिलिटी' भले कुछ बढ़ जाए, पर इससे किशोरों के मन में जो सपना बन रहा है, वह समाज को पिडारी अराजकता की ओर ले जाएगा।