रिपोर्ट : राहुल मिश्र
पिछले कुछ सालों में चीन की सामरिक और विदेश नीति में खासी आक्रामकता आई है। चीन के सीमा विवादों के मामलों में यह बात खासतौर पर देखी जा सकती है। चीन का हाल ही में पास किया गया नया कोस्टगार्ड कानून इसी सिलसिले में एक नई कड़ी बनकर उभरा है। चीन के पड़ोसी देशों ने इस पर खासी चिंता जताई है। जहां दक्षिण-पूर्व एशिया के देश परेशान हैं तो वहीं जापान इस नई चुनौती से निपटने के लिए जवाबी कदम उठाने पर विचार कर रहा है।
खबरों के अनुसार चीन ने एक नया कानून पास किया है जिसके तहत उसकी पूर्वी सागर और दक्षिण-पूर्वी सागर में तैनात कोस्टगार्ड टुकड़ियों को यह अधिकार होंगे कि वह पूर्वी सागर में और दक्षिण-पूर्वी सागर में परिसीमन करती तथाकथित नाइन-डैश लाइन में अतिक्रमण करने वाली नौकाओं, जहाजों और यहां तक कि नाविकों पर भी गोली चलाने, गोले दागने और मोर्टारों से हमले का अधिकार होगा। जनवरी 2021 में चीन की नेशनल पीपल्स कांग्रेस की स्टैंडिंग कमेटी द्वारा पास इस कानून के तहत विदेशी जहाजों को चीन की सीमा में घुसने से रोकने के लिए और चीन की संप्रभुता की रक्षा के लिए कोस्टगार्ड को हर जरूरी कदम उठाने का अधिकार होगा।
आमतौर पर कोस्टगार्ड दस्तों का काम देश की समुद्री सीमाओं की निगरानी करना होता है, खासतौर पर समुद्री डकैती (पाइरेसी), मानव और मादक पदार्थों की तस्करी और अन्य नॉन ट्रेडिशनल सुरक्षा खतरों से सुरक्षाबलों को तत्काल सूचित करना इसमें एक अहम कदम होता है। चीन के कोस्टगार्ड दस्तों को यह ताकतें मिलना क्षेत्रीय सुरक्षा और शांति के लिए निश्चित तौर पर अच्छी खबर नहीं है।
गौरतलब है कि 7 साल पहले ही चीन ने कई असैनिक प्रवर्तन एजेंसियों को मिलाकर कोस्टगार्ड ब्युरो की स्थापना की थी। इस लिहाज से यह अन्य देशों की कोस्टगार्ड संस्थाओं से पहले ही अलग था। चीन के इस कोस्टगार्ड कानून के दो और प्रावधान काफी चिंताजनक हैं। चीनी कानून के अनुसार चीन की नाइन डैश लाइन सीमा के अंदर किसी दूसरे देश की बनाई किसी भी बिल्डिंग या किसी भी कृत्रिम संरचना को गिराने की छूट कोस्टगार्ड दस्तों को होगी।
यहां तक तो फिर भी माना जा सकता है कि चीन अपनी सुरक्षा को लेकर ध्यान दे रहा है। लेकिन यह कि अपनी सुरक्षा जरूरतों के लिए और किसी दूसरे देश के तथाकथित अतिक्रमण को रोकने के लिए चीनी कोस्टगार्ड अपनी तथाकथित सीमा में किसी भी तरह की बिल्डिंग, हवाई पट्टी या कोई भी ढांचा बनाने को स्वतंत्र होगा, चीन की दादागिरी का साफ सबूत है।
दक्षिण चीन सागर में पिछले कई वर्षों से चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के बीच रस्साकशी चल रही है। कृत्रिम द्वीपों का निर्माण हो या इस क्षेत्र में सेनाएं तैनात करने का मसला हो, वैसे तो वियतनाम जैसे देशों ने अपनी जोर-आजमाइश में कमी नहीं छोड़ी है, लेकिन चीन की आक्रामकता, सैन्य, रक्षा, और इंजीनियरिंग तकनीकों के आगे यह देश बौने ही साबित हुए हैं।
चीन के मुकाबले वियतनाम की आक्रामक नीतियों ने कुछ खास असर नहीं दिखाया है। अफसोस की बात है कि ब्रूनेई और मलेशिया जैसे देश जिन्होंने दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी की शिकायतों को दबे-छुपे ढंग से कूटनीतिक गलियारों में ही उठाया है, उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी है।
अफसोस की बात यह भी है कि फिलीपीन्स जैसे देश जिन्होंने चीन और दक्षिण चीन सागर को लेकर अपनी नीतियों में नाटकीय परिवर्तन किए हैं और चीन से नजदीकियां बढ़ाकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की है, उन्हें भी इस मसले पर चीन के हाथों मुंह की खानी पड़ी है। इसके अलावा इंडोनेशिया जैसे देश जिनका इस विवाद से सीधा वास्ता ही नहीं था, वो भी आज इसकी गंभीरता को समझते हुए आक्रामक रवैया अपनाने पर मजबूर हुए हैं।
इंडोनेशिया की नौसेना ने जब कुछ पड़ोसी देशों की नौकाओं को चेतावनी देकर जला डाला था तो उसके पीछे यही वजह रही कि अब इंडोनेशिया को भी लगने लगा है कि उसकी सीमा में जान-बूझकर दूसरे देशों के मछुआरे प्रवेश करते हैं और इसे एक आदत बनने से पहले रोकना पड़ेगा। बहरहाल, इस तरह की प्रतिस्पर्धा की गतिविधियों से अभी तक किसी देश को कुछ हासिल नहीं हुआ है और यही वजह है कि दस दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संगठन- आसियान (एसोशिएसन ओफ साउथ-ईस्ट एशियन नेशंस) ने इस मुद्दे को शांतिपूर्वक और आपस में मिल-बैठकर सुलझाने की कोशिश की है। लेकिन तमाम कसमों वादों के बावजूद अभी तक यह मुद्दा कुछ ठोस परिणाम लाने में सफल नहीं हो पाया है।
आसियान और चीन के बीच 'कोड आफ कंडक्ट ऑन साउथ चाइना सी' को लेकर बरसों से चल रही शांति वार्ताओं पर भी इस नए चीनी कानून का बहुत नकारात्मक असर पड़ेगा। ऐसे में अमेरिका के जो बाइडन प्रशासन की आसियान देशों से बातचीत और चीन की दादागिरी के खिलाफ मदद के आश्वासन से दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों को कुछ राहत तो जरूर मिलेगी, लेकिन यह बात बहुत स्पष्ट है कि दक्षिण-पूर्व सागर में सीमा संबंधी मुद्दों पर आने वाले दिन चिंता और तनाव से भरे होंगे।
चीनी कोस्टगार्ड की कार्यवाहियों के मसले पर आपसी बातचीत के सर्वमान्य प्रोटोकाल के अभाव में दुर्घटनाओं की आशंका बहुत बढ़ गई है और किसी अनहोनी से इंकार भी नहीं किया जा सकता है। सिर्फ आशा की जा सकती है कि दक्षिण-पूर्ण एशिया के 10 आसियान सदस्य देश, जापान और अमेरिका जैसे देश संयम और सूझबूझ का दामन थामे रहेंगे और जल्द ही इस पर चीन से बातचीत के अवसर भी निकलेंगे और इसके प्रतिकार का रास्ता भी।
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)