ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता
अनिल जोंको आदिवासी हैं और चाईबासा में रहते हैं। अनिल 'हो' जनजाति हैं। छोटे से आदिवासी गाँव में वह अपने पुश्तैनी घर में बहन के साथ रहते हैं। चाईबासा से 20 किलोमीटर दूर बसे इस आदिवासी बहुल गाँव में ज़्यादातर घर कच्चे हैं और वहाँ बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
40 वर्षीय जोंको इन दिनों ज़मीन के मालिकाना हक़ को लेकर क़ानूनी विवाद में उलझे हैं। वह थोड़े परेशान थे इसलिए अदालत में सुनवाई से पहले अपने माता-पिता की क़ब्र पर जाकर प्रार्थना कर रहे थे।
उन्हें उम्मीद है कि मुक़दमा जल्द निपट जाएगा क्योंकि केस की सुनवाई एक ऐसी अदालत में हो रही है जो केवल आदिवासियों के लिए बनी है। वहाँ सिर्फ़ उनके पारिवारिक मामलों की सुनवाई होती है।
इस अदालत को यहाँ 'मानकी-मुंडा न्याय पंच' के नाम से जाना जाता है। यह एक परंपरागत पंचायत है, जोंको जिस अदालत में गए थे, उसकी स्थापना फ़रवरी 2021 में हुई थी।
आदिवासियों की इस विशेष अदालत के बारे में अनिल जोंको कहते हैं, "मानकी मुंडा न्याय पंच के बारे में मैंने पहली बार सुना है। न्याय पंच में गाँव से संबंधित ज़मीन विवाद का केस चलता है, ये जानकारी वहाँ जाने के बाद हुई।"
उन्हें ये न्याय पंच पसंद है क्योंकि इस "न्याय पंच में सब अपने क्षेत्र के लोग ही रहते हैं। वहां कार्रवाई 'हो' भाषा में ही होती है"।
इस अदालत में न कोई वकील होता है और न ही कोई जज। फ़ैसला तीन पंचों के हाथ में होता है। एक को प्रतिवादी नामित करता है, दूसरे को याचिकाकर्ता और तीसरे व्यक्ति की नियुक्ति स्थानीय प्रशासन करता है, जो कार्यवाही की अध्यक्षता करता है। इस अदालत के फ़ैसले को एसडीएम के दफ़्तर भेजा जाता है, जहाँ इसे अंतिम मंज़ूरी दी जाती है।
ज़मीन के विवादों और पारिवारिक मसलों को सुलझाने के लिए आदिवासियों के अपने अलग क़ानून और अपनी अलग अदालतें हैं। अब सरकार चाहती है कि सिविल मामलों में देश भर में सभी लोगों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) यानी एक जैसा क़ानून लागू हो।
आदिवासी नाराज़ हैं, यूसीसी को लेकर
झारखंड में यूसीसी का कड़ा विरोध हो रहा है। उनका कहना है कि अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड आया तो उनका सदियों पुराना जीवन जीने का ढंग ख़त्म हो जाएगा और चाईबासा में बनाई गई आदिवासियों की स्पेशल अदालत का कोई मतलब नहीं रह जाएगा।
स्थानीय वकील शीतल देवगम कहती हैं, "मैं भी 'हो' ट्राइब हूँ। मैं भी यहीं की हूँ। यहाँ के रीति-रिवाज मेरे ऊपर भी लागू होते हैं, तो मेरे नज़रिये से जो लैंड का मैटर है, जो अदालत में आ रहा है अगर यूसीसी आ गया तो ये सबसे ज़्यादा किसान और आदिवासी लोगों के लिए दिक़्क़त होगी।"
गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश भर में लगभग 750 आदिवासी समुदाय हैं और झारखंड में इनकी संख्या 32 है। इनके रीति-रिवाज और इनकी ज़मीन को बचाने के लिए अंग्रेज़ों के ज़माने से ही कुछ विशेष क़ानून लागू हैं।
पर्सनल लॉ के तहत विवाह, विरासत, गोद लेने, बच्चे की कस्टडी, गुज़ारा भत्ता, बहुविवाह और उत्तराधिकार से संबंधित मामले आते हैं, लोग आम तौर पर मुस्लिम पर्सनल लॉ की बात तो जानते हैं लेकिन कई समुदायों के अलग पर्सनल लॉ हैं, जिनमें आदिवासी भी शामिल हैं।
कई आदिवासी समूहों को डर है कि एक समान सिविल कोड को लागू करने से उनकी परंपराओं पर असर पड़ेगा। मसलन, झारखंड में आदिवासियों की संपत्ति और परंपराओं की हिफाज़त के लिए अंग्रेज़ों के ज़माने से ही तीन क़ानून लागू हैं-
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विल्किन्सन नियम: 1837 में ब्रिटिश राज के दौरान लागू किए गए इस नियम के तहत, आदिवासियों के बीच भूमि संबंधी विवादों का निपटारा करने के लिए आदिवासी अदालतें स्थापित की गईं। इन्हीं परंपराओं और प्रथाओं के अनुसार, फ़रवरी 2021 में चाईबासा के मानकी मुंडा न्याय पंच की स्थापना की गई थी।
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छोटानागपुर किरायेदारी अधिनियम: ये क़ानून 1908 में आया जो आज भी लागू है। यही क़ानून आदिवासी भूमि के ग़ैर-क़ानूनी अधिग्रहण के ख़िलाफ़ उन्हें क़ानूनी सुरक्षा प्रदान करता है।
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संथाल परगना किरायेदारी अधिनियम: 1876 में लागू किया गया यह अधिनियम ज़िला उपायुक्त की इजाज़त के बिना संथालों के स्वामित्व वाली भूमि को ग़ैर-संथाल व्यक्तियों या संस्थाओं को बेचने पर रोक लगाता है।
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इनके अलावा, संविधान की पाँचवीं अनुसूची में दस राज्यों का ज़िक्र भी मिलता है, जहाँ आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उनकी परंपराओं की हिफाज़त की बात कही गई है।
इसी तरह से संविधान की छठी अनुसूची में भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में आदिवासी संस्कृति की सुरक्षा की बात की गई है, जहाँ उनकी परंपरा की हिफाज़त के लिए ज़िला परिषद होते हैं। पांचवीं अनुसूची में झारखंड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान शामिल हैं।
संविधान की छठी अनुसूची आदिवासी संस्कृति की सुरक्षा और रख रखाव के उद्देश्य से मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम और असम में स्वायत्त ज़िला परिषदों की स्थापना का प्रावधान करती है।
झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों के लिए सालों से लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला यूसीसी के बारे में कहती हैं, "एक देश में एक क़ानून कैसे चलेगा? पहले से ही हम पाँचवीं अनुसूची में हैं, हमारे लिए छोटानागपुर अधिनियम है, संथाल परगना अधिनियम हमारे लिए है, हमारे लिए विल्किंसन रूल है। हमारे ग्राम सभा को अपना अधिकार है।"
दयामनी बताती हैं कि ये मामला केवल ज़मीन-जायदाद तक सीमित नहीं है, वे पूछती हैं, "शादी करने का अपना कस्टमरी लॉ है। यहाँ पर हमारे प्रॉपर्टी का कौन उत्तराधिकारी होगा उसके लिए हमारा अपना कस्टमरी लॉ है। इस देश में 140 करोड़ जनता है। अब कन्याकुमारी से कश्मीर तक विभिन्न जातीय समुदाय के लोग हैं, अलग-अलग मज़हब के लोग हैं, तो उनको आप एक धारा में कैसे खड़ा करेंगे?"
आदिवासी औरतों का संपत्ति में हिस्सा
ज़मीन आदिवासियों के जीवन के केंद्र में है। यूसीसी से उन्हें सबसे अधिक ख़तरा ज़मीन छिन जाने का है। शादी हो या गोद लेने की परंपरा, आदिवासियों में ये सब मसले भी कहीं न कहीं ज़मीन से ही जुड़े हैं।
जैसा कि राँची के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज के प्रोफ़ेसर संतोष कीड़ो कहते हैं, "ज़मीन ईश्वर की ओर से हमें दिया गया उपहार है। हम इसके व्यक्तिगत रूप से मालिक नहीं हैं। हम केवल इसका उपयोग करते हैं और फिर अगली पीढ़ी को सौंप देते हैं।"
आदिवासी समाज में बेटियों को उनके पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता। उनकी शादी के बाद उनके पतियों की जायदाद में भी उनकी हिस्सेदारी नहीं होती। यूसीसी के आने से स्त्री-पुरुष के बीच समानता आएगी और आदिवासी औरतों को जायदाद में हिस्सेदारी मिल सकेगी।
दयामनी बारला बताती हैं कि एक आदिवासी बेटी जब अपने पिता के घर होती हैं तो वो पिता की संपत्ति का उपयोग करती है और जब वो अपने पति के घर चली जाती है तो वो अपने पति की संपत्ति की सुविधाएं पाती है।
वो कहती हैं, "उनका कागज़ में नाम नहीं होता है लेकिन इसके बावजूद आप देखिए कि हमारे समाज में दहेज की प्रथा नहीं है, दहेज न लाने के कारण लड़कियों को जलाया नहीं जाता। हमारे यहाँ बलात्कार की घटनाएं न के बराबर हैं।"
प्रोफ़ेसर संतोष कीड़ो के मुताबिक़ आदिवासी समाज में औरतों के अधिकार सुरक्षित हैं। ज़मीन में उनकी हिस्सेदारी पर वो कहते हैं कि आदिवासी जायदाद सामूहिक मिलिकियत होती है, जिसे किसी व्यक्ति या संस्था को ट्रांसफ़र नहीं किया जा सकता।
क्या आदिवासियों को यूसीसी में रखा जाएगा?
ये साफ़ है कि केंद्र सरकार को आदिवासियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है। अनौपचारिक रूप से केंद्र की तरफ़ से ऐसे इशारे मिल रहे हैं कि उन्हें यूनिफॉर्म सिविल कोड से बाहर रखा जा सकता है।
लेकिन आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि यूसीसी में सभी समुदायों को शामिल करना चाहिए।
राँची टेक्निकल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अमर कुमार चौधरी एक ऐसे ही जानकार हैं। वो कहते हैं, "मेरे विचार में आदिवासियों को यूसीसी से अलग नहीं रखना चाहिए। समय लीजिए, बहस कीजिए, कुछ देर बाद हो, दस साल बाद लागू करें क्योंकि ये अगर लागू होगा तो सबके लिए अच्छा होगा। देखिए अब देश आगे बढ़ रहा है। सबको साथ चलने की ज़रूरत है। यूसीसी सबके लिए हो। लेकिन किसी प्रकार का कोई कन्फ्यूज़न न हो।"
प्रोफ़ेसर अमर ख़ुद आदिवासी नहीं है, पर उनके बीच दशकों से काम करते रहे हैं। वो बीजेपी और आरएसएस से भी जुड़े हैं। वो ये भी ज़ोर देकर कहते हैं कि आदिवासियों से बातचीत के बिना उन्हें यूसीसी में शामिल न किया जाए।
वो कहते हैं, "देखिए मैं तो उनके बीच ही रहता हूँ। ये शुरूआती दौर है और जो लोग इस पर बात कर रहे हैं वो पढ़े-लिखे लोग हैं। ये लोग इस मुद्दे को समझ रहे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में जो आदिवासी रह रहे हैं, जो पहाड़ों और जंगलों में रहते हैं, उनको यूसीसी के बारे में कुछ नहीं मालूम इसलिए इस पर बात होनी चाहिए, उनके अंदर जागरूकता लानी चाहिए। यूसीसी उनके लिए सही है या ग़लत है, इससे पहले उन्हें इसकी पूरी जानकारी होनी चाहिए।"
हाल में झारखंड के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन ने भी एक अख़बार को दिए इंटरव्यू में इस बात पर ज़ोर दिया था कि जब तक आदिवासी समाज यूसीसी के लिए तैयार न हो उन्हें इससे बाहर रखना चाहिए।
यूसीसी पर बनी स्थायी संसदीय समिति के अध्यक्ष और भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी ने भी हाल में आदिवासियों को यूसीसी से बाहर रखने की वकालत की थी लेकिन केंद्र सरकार ने औपचारिक रूप से इस पर कोई फ़ैसला नहीं किया है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि अभी यूसीसी पर बहस मीडिया में आई ख़बरों पर हो रही है। अभी बिल का मसौदा भी सामने नहीं आया है।