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Written By BBC Hindi
Last Modified: सोमवार, 2 मई 2022 (16:52 IST)

भारत के सवर्ण क्या विदेशों में भी अपनी जाति नहीं छोड़ रहे हैं

भारत के सवर्ण क्या विदेशों में भी अपनी जाति नहीं छोड़ रहे हैं - Are the upper castes of India not leaving their caste even in foreign countries
- मेरिल सेबास्तियन
अमेरिका के कोलोराडो और मिशिगन प्रांतों ने हाल ही में 14 अप्रैल को डॉ. भीमराव आंबेडकर समानता दिवस घोषित किया है। इससे कुछ दिन पहले ही कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत ने अप्रैल को दलित हिस्ट्री मंथ (दलित इतिहास महीना) घोषित किया था।

भारत के संविधान निर्माता आंबेडकर दलितों (जिन्हें पहले अछूत माना जाता था) के मसीहा नेता रहे हैं। भारत की जाति व्यवस्था में निचले स्तर पर होने की वजह से दलितों ने ऐतिहासिक तौर पर शोषण झेला है। भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को हुआ था।

भारत के संविधान और अदालतों ने बहुत पहले ही दलितों के सामाजिक पिछड़ेपन को स्वीकार करते हुए उन्हें आरक्षण और विशेष क़ानूनों के ज़रिए सुरक्षा देने का काम किया है। अब अमेरिका और पश्चिमी देशों में सक्रिय दलित कार्यकर्ता उन्हें इसी तरह की पहचान पश्चिमी देशों में भी दिलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं।

पश्चिमी देशों में भारतीय मूल के लोगों को एक आदर्श अल्पसंख्यक समुदाय समझा जाता है जो आसानी से देश में घुलमिल जाता है। भारतीय मूल के लोगों को महत्वाकांक्षी और मेहनती भी माना जाता है।

अमेरिका में स्थित नागरिक अधिकार संगठन आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर से जुड़े राम कृष्णा भूपति बीबीसी से कहते हैं, आंबेडकर ने एक बार कहा था कि अगर हिंदू दूसरे देशों में जाकर बसेंगे तो जातिवाद एक वैश्विक समस्या बन जाएगा। अभी अमेरिका में बिलकुल यही हो रहा है।

दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि उच्च जात वर्ग के भारतीय जिस भेदभाव और जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, ख़ासकर विश्वविद्यालयों और टेक्नोलॉजी संस्थानों में, उसे लंबे समय से नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों से बहुत से लोगों ने इसके ख़िलाफ़ बोलना शुरू किया है।

एनपीआर के सितंबर 2020 में प्रसारित हुए शो रफ़ ट्रांसलेशन में बोलते हुए तकनीकी क्षेत्र में काम करने वाले एक कर्मचारी ने छद्म नाम सैम कोर्नेलस का इस्तेमाल करते हुए अपने अनुभव साझा किए थे। उन्होंने बताया था कि उनके सहकर्मी उनकी कमर पर हाथ मारकर ये देखते थे कि उन्होंने जनेऊ पहना है या नहीं। जनेऊ एक सफ़ेद रंग का धागा होता है, जिसे हिन्दुओं में सवर्ण जातियों के पुरुष पहनते हैं।

उस शो में बात करते हुए इस कर्मचारी ने कहा था, वो आपको तैराकी के लिए आमंत्रित करेंगे, आप जानते हैं? कहेंगे चलो, तैरते हैं- वो ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि तैरने के लिए टीशर्ट उतारनी पड़ती है। असल में वो ये देखना चाहते हैं कि आपने जनेऊ पहना है या नहीं।

शो में शामिल दूसरे लोगों ने भी ये स्वीकार किया था कि यूनिवर्सिटी की पार्टियों में भारतीय एक-दूसरे से जाति पूछते हैं और वो इससे असहज होते हैं और जवाब देने से डरते हैं। पिछड़ी जातियों के कार्यकर्ताओं के प्रयासों और ऑनलाइन बात करने के सुरक्षित ठिकानों की वजह से इस मुद्दे पर हाल के सालों में चर्चा हुई है।

मेन के कोल्बी कॉलेज में जातिगत सुरक्षा के लिए संघर्ष करने वाली असिस्टेंट प्रोफ़ेसर सोंजा थॉमस कहती हैं कि जॉर्ज फ्लॉयड और ब्रेओना टेलर की मौत के बाद शुरू हुए ब्लैक लाइव्स मैटर अभियान का भी इस मुद्दे पर प्रभाव हुआ है।

दक्षिण एशियाई मूल के अमेरिकी अब ये विचार कर रहे हैं, उनके अपने समुदायों में जातिवाद किस तरह कालों के ख़िलाफ़ भावना की ही तरह हैं। थॉमस कहती हैं कि पिछले एक दशक में ये बदलाव हुआ है कि उच्च वर्ग के बहुत से लोग अब स्वयं को मिले ऐतिहासिक विशेषाधिकार से अब जूझ रहे हैं।

पुलित्ज़र सेंटर के फंड से बनी कास्ट इन अमेरिका सिरीज़ में बात करते हुए डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्माता कविता पिल्लई ने कहा था, हम ये बात तो बहुत अच्छे से जानते हैं कि कैसे हमारे माता-पिता एक सूटकेस और चंद डॉलर लेकर अमेरिका पहुंचे लेकिन हमें इस बात की बहुत समझ नहीं है कि कैसे भारत में मिली जातिगत वरीयता की वजह से हमारे परिजन का यहां आने का रास्ता साफ़ हुआ और हमारे अभिभावकों, हमने और हमारे बच्चों ने यहां अच्छा किया।

कार्यकर्ता कहते हैं कि अमेरिका में दलित अधिकारों के मामले में ऐतिहासिक पल तब आया जब कैलिफ़ोर्निया में आईटी कंपनी सिस्को के उच्च जाति वर्ग के दो कर्मचारियों के ख़िलाफ़ भारतीय मूल के एक दलित के साथ भेदभाव करने के लिए 2020 में मामला दर्ज हुआ।

आंबेडकर एसोसिएशन ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका ने बीबीसी से कहा, इस मुक़दमे ने पहले से चल रहे प्रयासों को विश्वसनीयता दी। सिसको के मुक़दमे के बाद दलित अधिकार संस्थान इक्वलिटी लैब ने एक हॉटलाइन शुरू की जिस पर चंद दिनों के भीतर गूगल, फ़ेसबुक, एपल जैसी बड़ी सिलीकॉन वैली कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों के 250 से अधिक कॉल आए। इन कर्मचारियों ने अपने साथ जातिगत आधार पर भेदभाव की शिकायत की। सिसको मुक़दमे में गूगल की पेरेंट कंपनी अल्फाबेट की वर्कर यूनियन ने भी मदद की।

इक्वालिटी लैब्स के संस्थापक थेनमोझी सुंदरराजन ने बीबीसी से कहा, ये पहली बार था जब हमारे मूल देश के बाहर एक अमेरिकी संस्थान ने जाति को अहम नागरिक अधिकार समस्या माना जिसके लिए सरकार की तरफ़ से क़ानूनी कार्रवाई की ज़रूरत है।

साल 2021 में एक अन्य मुक़दमे में हिंदू संस्था बोचासनवासी श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) पर दलित मज़दूरों का शोषण करने और उन्हें न्यूनतम मज़दूरी से कम वेतन देने के आरोप लगे।
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